विशेषांक: दलित साहित्य

22 Sep, 2020

हम आदिवासी हैं

कविता | वीना श्रीवास्तव

हमें प्यार है जंगल से 
गिरते झरने, पहाड़ी नदियाँ 
भाती हैं दिल को
महुआ की मादक गंध
महका देती है तन – मन
सरहुल के नृत्य
उमंग भर देते हैं मन में
बेंग, फुटकल, सनई, रुगड़ा और खुखड़ी
कहीं जाने नहीं देते
साल के वृक्ष हमारे संरक्षक हैं
जो थाली, प्लेट, कटोरी से लेकर 
ढकते हैं हमारा तन
 
हम सुरक्षित रखते हैं 
अपनी परम्पराओं को
जीवित रखते हैं 
अपनी संस्कृति को
 
हमारे यहाँ लड़का – लड़की नहीं होती
होता है तो ‘हल जोतवा’ या ‘साग तोड़वा’
‘साग तोड़वा’ को खुली छूट है
अपना जीवन जीने की
उसे हवा की सी आज़ादी है
नदी में बहने की स्वतंत्रता है
और ‘हल जोतवा’ समझता है 
बराबरी के अधिकार को
 
पुरखों को नहीं भूले हैं हम
परब की शान है हड़िया
हम जुड़े हैं अपनी ज़मीन
अपने जंगल और 
कल – कल बहते जल से 
संस्कृति को सँजोये
इस देश के वासी हैं
हम आदिवासी हैं

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