स्वामिनी थी जो संसार की

15-02-2025

स्वामिनी थी जो संसार की

कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति' (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

गंगोदक सवैया (वर्णिक छंद) 
रगण: 212 X 8
 
थी पली जो कभी, राजसी ठाट से, 
राम के साथ वो, बिहड़े जा रही। 
 
जो कभी भी नहीं, वेदना को सही, 
पादुका के बिना, वो चली जा रही। 
 
छोड़ प्रासाद को, संग श्री राम के, 
भू पुत्री वानिका, दाव में जा रही। 
 
कोमलांगी सिया, थी पली नाज़ से, 
भूमिजा शूल पे, हर्ष से जा रही॥
 
त्याग शाही लड़ी, वो छल्ली में सजी, 
रामजी के तुल्य, वो चली जा रही। 
 
जो कभी भी नहीं, दर्द को थी सही, 
वो कँटीले पथों, पे बढ़ी जा रही। 
 
थी कृशांगी बड़ी, है वनों में पड़ी, 
कुंभ माथे धरी, वो चली आ रही। 
 
स्वामिनी थी सिया, पूर्ण संसार की, 
कष्ट में रैन वो, काटती जा रही॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
ललित निबन्ध
दोहे
गीत-नवगीत
सामाजिक आलेख
किशोर साहित्य कहानी
बच्चों के मुख से
चिन्तन
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
चम्पू-काव्य
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में