स्वामिनी थी जो संसार की
कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'
गंगोदक सवैया (वर्णिक छंद)
रगण: 212 X 8
थी पली जो कभी, राजसी ठाट से,
राम के साथ वो, बिहड़े जा रही।
जो कभी भी नहीं, वेदना को सही,
पादुका के बिना, वो चली जा रही।
छोड़ प्रासाद को, संग श्री राम के,
भू पुत्री वानिका, दाव में जा रही।
कोमलांगी सिया, थी पली नाज़ से,
भूमिजा शूल पे, हर्ष से जा रही॥
त्याग शाही लड़ी, वो छल्ली में सजी,
रामजी के तुल्य, वो चली जा रही।
जो कभी भी नहीं, दर्द को थी सही,
वो कँटीले पथों, पे बढ़ी जा रही।
थी कृशांगी बड़ी, है वनों में पड़ी,
कुंभ माथे धरी, वो चली आ रही।
स्वामिनी थी सिया, पूर्ण संसार की,
कष्ट में रैन वो, काटती जा रही॥
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अब ये क़दम ना पीछे हटेंगे
- अभिलाषा
- अमरों में नाम लिखा लेना
- आओ मतदान करें
- आदिशक्ति मात भवानी
- आयो कृष्ण कन्हाई
- आसमान पर छाओगे
- करना होगा कर्म महान
- कर्मनिष्ठ
- कर्मयोगी
- किस आस में तू खड़ा
- कुछ नवीन सृजन करो
- कृष्ण भजन
- चले वसंती बयार
- देवी माँ
- धरती की पुकार
- नव निर्माण
- नव संवत्सर
- नवदुर्गा
- पुरुष
- प्रीत जहाँ की रीत
- बेटी धन अनमोल
- माता वीणापाणि
- मुट्ठी में आकाश करो
- मेघा रे
- मेरा गाँव
- मेरी क़लम
- मोहन प्यारा
- युगपुरुष
- राम भजन
- रामलला
- वन गमन
- वेदमाता भवानी
- शिक्षक
- श्रीहरि
- साथ हूँ मैं तुम्हारे
- सुनो कन्हैया
- स्वामिनी थी जो संसार की
- हमारा बिहार
- होली
- ख़ुद को दीप्तिमान कर
- ज़रा रुक
- ललित निबन्ध
- दोहे
- गीत-नवगीत
- सामाजिक आलेख
- किशोर साहित्य कहानी
- बच्चों के मुख से
- चिन्तन
- आप-बीती
- सांस्कृतिक आलेख
- किशोर साहित्य कविता
- चम्पू-काव्य
- साहित्यिक आलेख
- विडियो
-
- ऑडियो
-