विशेषांक: दलित साहित्य

22 Sep, 2020

टूटती हैं लाठियाँ जब

गीत-नवगीत | जगदीश पंकज

कौन, कितना 
देखकर होता द्रवित है
टूटती हैं लाठियाँ जब भी दलित की 
पीठ पर, 
ज़ालिम दबंगों के क़हर की
 
गा रहे समभाव को 
ऊँचे स्वरों में
क्या उन्हें समता
कहीं देती दिखायी
क्रूरता का वीडियो 
सोशल पटल पर
डालकर निर्भीक हो
करते ढिठाई
 
नहीं देते जगह 
शव तक के दहन को
कौन आता है कहाँ प्रतिरोध में तब 
बिन किये 
परवाह फैले क्रूर डर की
 
लोग किस स्वाधीनता की 
बात करते
आज भी बेगार के
बरगद खड़े हैं
जन्म के बन्धन
विकट कसकर बँधे जब
आस्था के प्रश्न तब 
कितने बड़े हैं
 
जाति-गौरव , 
दम्भ की परिकल्पनाएँ
हैं खड़ी इतिहास लेकर श्रेष्ठता का
और सेनाएँ 
लिए कल्पित समर की
 
ओढ़कर निष्पक्षता की 
केंचुली को
मीडिया कितना 
विमर्शों से घिरा है
शुद्ध प्रायोजित जहाँ 
चर्चा पटल पर
सूत्र का मिलता नहीं
कोई सिरा है
 
बौद्धिकों को 
वंचना दिखती नहीं क्यों
देखकर अनदेख, सुनकर अनसुना क्यों 
कर रही है 
सभ्यता विकसित नगर की 

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