विशेषांक: दलित साहित्य

19 Sep, 2020

ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी

गीत-नवगीत | जगदीश पंकज

मैं रिझाने के लिए
तुमको लिखूँ जो 
हैं नहीं वे शब्द 
मेरे कोश में भी
 
दोपहर की 
चिलचिलाती धूप में जो 
खेत-क्यारी में 
निराई कर रहा है
खोदता है घास-चारा 
मेंड पर से 
बाँध गठ्ठर ठोस 
सिर पर धर रहा है
 
है वही नायक 
समर्पित चेतना का 
मैं उसी को गा रहा 
उद्घोष में भी
 
जो रुके सीवर 
लगा है खोलने में 
तुम जहाँ पर 
गंध से ही काँपते हो
दूरियों को नापकर 
चढ़ता शिखर तक 
तुम जहाँ दो पाँव 
चलकर हाँफते हो
 
मैं उसी की 
मौन भाषा बोलता हूँ
प्राणपण से 
दनदनाते रोष में भी
 
घाव, टीसें, आह, आँसू 
छोड़कर मैं 
किस तरह उल्लासमय 
उत्सव मनाऊँ 
या किसी की यातनामय 
चीख सुनकर 
मैं रहूँ चुप, और 
रो-रोकर रिझाऊँ
 
जब असंगत हैं 
सभी अनुपात तो फिर
ताप मैं भरता रहूँ 
आक्रोश में भी

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