विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

संघर्ष अभी बाक़ी है...

कविता | डॉ. श्रवण कुमार सोलंकी

प्रभु ने कहा-
तुम नीच हो, अछूत हो,
जन्मे हो, मेरे पैरों से;
सबकी सेवा, तुम्हारा धर्म है।
मैं तुम्हें दासत्व देता हूँ,
सिर्फ़ कर्म होंगे तुम्हारे,
तुम्हारे अधिकारों का भोग,
कदाचित ऊँचे लोग करेंगे।


प्रभु ने कहा-
तुम्हारी परछाई भी अभिशाप है,
तुम थूक नहीं सकते ज़मीन पर,
तुम्हारी स्त्री ढँक नहीं सकती स्तन अपने,
तुम्हारे पद चिह्न, अपवित्र करते धरती को,
तुम्हारा कुँआ; पोखर, घाट भिन्न होंगे,
तुम्हारे मार्ग और घर परे रहेंगे गाँवों से,
तुम रहोगे अलग-थलग। 


प्रभु ने कहा-
तुम्हें वही करना है, जो मैंने निर्धारित किया,
अपने-अपने कर्म में लगे रहो,
किसी दूसरे के कर्मों का अतिक्रमण नहीं,
जन्मजात कर्मों को त्यागने की अनुमति नहीं तुम्हें।


प्रभु ने कहा-
सेवा करो, उच्च तीन वर्णों की,
उनकी आज्ञा को ढोना नियति है,
वे स्वामी हैं तुम्हारे,
उनके ज़मीन जोतो
पालकी उठाओ,
चरण रज पियो,
यही धर्म हैं, तुम्हारे।


प्रभु! आप इतने निष्ठुर नहीं हो सकते?
पढ़ने का, अच्छे कपड़े पहनने का,
उत्सव मानने का,
अपने मंदिर में आने का भी,
अधिकार नहीं देते मुझे?


प्रभु!
आपने ये सब नहीं कहा।
यह पाप है, धर्म के नाम पर अधर्म है
कोई छले तुम्हारे नाम से,
दास बनाये
किन्तु मूक दर्शक भर रहो आप भी?


प्रभु!
मैंने तुम्हारी आज्ञा समझ
उठाया है पापियों का मैला
प्रभु! कभी
शूद्रों व स्त्री की रक्षा लिए
अवतार लो, कभी
उनका संहार करो जो
तुम्हारी आज्ञा के नाम पर
युगों छल करते रहे हैं, दुनिया में।

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