विशेषांक: दलित साहित्य

11 Sep, 2020

कुछ वर्ष पहले बीती हुई यह बात सोचने पर ऐसी लगती है ऋण मानों बस कल ही घटित हुई हो, यूनेस्को की टीम का एक व्यक्ति उस साल मात्र इसी काम के लिए आया था कि चेक देने के पहले वह औरईआ गाँव की उस लड़की से स्वयं मिलना चाहता था, उसकी स्थिति को अपनी आँखों से देखना चाहता था। 

इसी सन्दर्भ में मिस्टर जोसफ से मीटिंग के दौरान पहली बार मिलना हुआ था। मीटिंग में इस सबसे ज़रूरी मुद्दे के अलावा और भी कई एजेंडे थे, उस दिन घंटों चलने वाली उस मीटिंग के दौरान न जाने कितने नए-पुराने केसेज़ को निपटाया गया था। 

चिरैयाटांड पुल से एग्ज़ीबीशन रोड चैराहे तक जाने वाली सीधी सड़क पर बाईं ओर सातवीं बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल पर स्थित था हमारा वह मीटिंग हाल। उसी हाल में सरकारी-ग़ैरसरकारी, सभी लोग घंटों बैठे रहे, बातें,  बहसें, मुद्दे, एजेंडे। अंत में जब मीटिंग पूरी होने पर उठे थे, तो रात के खाने का वक़्त बस बीतने ही वाला था। 
अन्य बातों के संग मीटिंग के बीच यह तय हो चुका था कि शिबराय, मैं और जोसफ तीनों को जल्दी से जल्दी उस लड़की, रुकीमिआ के गाँव पहुँच जाना है– औरईआ गाँव। 

◘ ◘

किलोमीटर के हिसाब से गाँव की दूरी बहुत ज़्यादा नहीं थी। लेकिन रास्ता? उफ! वह तो बेहद उलझा हुआ था। पटना में पहले रिक्शा से महेन्द्रू घाट जाओ फिर स्टीमर, उसके बाद पहलेजा घाट पर लंबी दूरी तक पैदल चलकर ट्रेन पकड़ना और फिर मुजफ्फपुर पहुँचकर बस पकड़ना। वहाँ से हथुआ, बेलाही वाले रास्ते से मेन रोड पर उतरकर कच्ची सड़क पकड़कर गंतव्य पर पहुँचना यानि कि औरईआ गाँव पहुँचना। ख़ैर, इस रास्ते से मैं और शिबराय तो परिचित थे, लेकिन सूटेड-बूटेड जोसफ पर इस यात्रा में क्या-क्या गुज़रेगी, यह मेरी समझ से बाहर था, लेकिन जोसेफ सबसे ज़्यादा सीरियस था इस कार्यक्रम को लेकर। 

सुबह पाँच बजे खुलने वाले स्टीमर पर हम सवार हुए, और सुबह की ठंढी हवा ने तुरंत ही आँखों में नींद भर दी, वहीं सीट पर बैठे-बैठे ही नींद आ गयी। 

◘ ◘

“मालिक, मालिक! अब उठू न! सटीमर त रुकइत हए।”

शिबराय का टेलवा नौकर उन्हें उठने के लिए आवाज़ दे रहा था। मैं भी झटपट उठकर हाथ मुँह धो आई। 

सोनपुर से जब ट्रेन चली तब तक राइट टाइम थी, लेकिन नार्थ ईस्टर्न रेलवे की सवारी गाड़ी गंतव्य पर लेट न पहुँचे क्या ऐसा कभी हुआ है? सो एक घंटे लेट मुजफ्फपुर पहुँचने पर किसी को कोई आश्चर्य न हुआ। ख़ैर, अभी तक का सफ़र तो पूरी यात्रा के बेच का अपेक्षाकृत आसान हिस्सा था।

पूरी यात्रा का असली जहद्दम सफ़र तो अब शुरू होने वाला था। ट्रेन से उतरकर स्टेट बस की ठसाठस भरी सीटों के बीच गठरी-मोठरी के संग लदे हुए असभ्य क़िस्म के लोगों के संग का सफ़र।   

हरियाली से भरे प्रदेश के बीच लगभग ढाई घंटे तक बस चलती रही, रुकते-पड़ते हुए। हथुआ गाँव के बाद हम लोग मेन रोड पर ही उतर गए। उसके बाद शुरू हुआ कच्ची सड़क का सफ़र। बीच-बीच में घुटने तक धोती पहने सिर पर मुरेठा बाँधे गाँव के एक दो लोग मिले।

“तब? केने के जतरा हई?“ 

शिबराय ही जवाब देते– “औरईआ जाइछी।”   

“जाऊ-जाऊ, उहे आगे हए।”     

◘ ◘

हम बढ़ते-बढ़ते औरईआ गाँव के मुहाने तक पहुँच गए।

“ई देखिए, यहाँ से जो ई सीधा रस्ता है न, ओ ही जाता है सरपंच के घर तक।” 

रबिराय जोसफ को सड़क की रेख दिखा रहा था। गाँव जाने पर सरपंच को इतला देना ज़रूरी होता है, यह जोसफ को शायद पहले से ही पता हो।

ख़ैर, चलना तो है ही।

सरपंच जी कहीं गए हुए थे, उनके बड़े भाई धोती-गंजी पहने हुए बाहर निकल आए–

“आया जाए! आइए, आइए, थोड़ा बईठ जाइए।”

“रे रमेसरा, तनि पंखा त ला, देख मेहमान सब पसीना-पसीना भेल हथिन।”

रमेसरा ठीक हमारे मुँह पर ज़ोर-ज़ोर से पंखा झलने लगा, ताड़ का पंखा। शिबराय तो इस व्यवहार के आदी थे, लेकिन दिल्लीवासी क्रिश्चन जोसफ इस परिवेश में आकर थोड़ा सकपकाया हुआ सा था, अपने चौड़े जबड़े के संग वह हमेशा की तरह दृढ़ मुद्रा में मानों सोच में डूबा बैठा रहा।

◘ ◘

हमें लगातार यह याद था कि हमारा यह ट्रिप उस विकलांग किशोरी के पक्ष में था, जिसकी ख़बर जनकपुर से लौटकर जाने वाले अमेरिकी टूरिस्ट ने दी थी। न्यूयार्क टाइम्स में छपी उस लड़की की दुर्दशापूर्ण जीवन शैली किसी को भी दहलाने के लिए काफ़ी थी। वह चल नहीं सकती थी। और अपने गाँव के एक झोपड़ी में पिछले छह महीने से अकेली पड़ी थी। माँ थी नहीं, बाप कुछ महीने पहले कहीं भाग गया था।

आसपास के लोग सहायता किया करते थे। फिर भी रुकमिआ दुर्गम और दुर्गति भरी नरक जैसी दिनचर्या विदेशी टूरिस्ट की नज़र में भयावह गुज़री थी और उसने फोटो सहित एक मैटर टाइम्स ग्रुप को भेजा था, जिसके छपने के बाद यूनेस्को की सर्वसहायता टीम ने भारत में संपर्क साधा था और आज हम उस दुखियारी के गाँव की ओर जा रहे थे।

सरपंच के भाई उठकर अंदर गए। थोड़ी ही देर बाद हमारे खाने के लिए बीच में चूड़ा गुड़ की एक थाली रख दी गई। ऊँचे किनारे वाली थाली में ख़ुशबूदार चूड़ा भरा हुआ था, उसके ऊपर गुड़ के तीन ढेले। भूख तो वास्तव में लग आई थी, शिबराय ने कहा, “लीजिए, थोड़ा खा लीजिए, तब चलते हैं।”

घी मला हुआ सूखा चूड़ा, गुड़ के नन्हें टुकड़ों के संग अलग स्वाद देता रहा। 

सरपंच के यहाँ से हम चले तो चलते गए-चलते गए, सड़क की सीध में एक तालाब बाईं ओर आया तालाब की मेड़ पर आगे बड़े तो जैसे एकदम आदिम गाँव में आ गए। झोपड़ियाँ दूर-दूर बनी हुई थीं, रास्ते में कुछ बकरी और मुर्गे।

आगे चलकर हम दाएँ मुड़े तो बाईं ओर एक थोड़ी बड़ी झोंपड़ी के दरवाज़े की ओर दिखाकर शिबराय ने इशारा किया, वहीं, वह रुकीमिआ ज़मीन पर बैठी हुई थी।

◘ ◘

कष्ट भरे जीवन को जीनेवाली उस जान का चेहरा था तो आम लड़कियों जैसा लेकिन उस पर स्थित भाव! 
ऊफ! ऐसा संघर्षपूर्ण, निरीह और कातरता भरा मुखड़ा मैंने कभी देखा था? नहीं! आजतक नहीं।

हमें देखकर वह मानों स्वयं में ही सिमटने लगी।

"डरो मत” – जोसफ वहीं उसके करीब जमीन पर उकड़ूँ बैठ गया था। पहली बार जोसफ एक आम व्यक्ति की तरह दिेखा था, क्रिश्चिनिटी का दयालुता वाला भाव उसका पूरे शरीर पर पसर गया था मात्र ऑफिशियल ताना बाना नहीं था वहाँ।

हालाँकि उस समय नहीं समझ पाए थे हम लोग कि जोसफ का यही आम व्यवहार उसे शीघ्र ख़ास से भी ख़ास व्यक्ति बना डालने वाला है। क्रिश्चिनिटी के दयालुता वाले भाव ने उसे चारों ओर से लपेट लिया था। वह बेहिचक वहीं ज़मीन पर बैठा रहा था ओर रुकीमिआ के सिर पर हाथ फेरता हुआ मानो अबोला आश्वासन दे रहा हो – “देखो में आ गया हूँ, अब तुम्हारे दुखों को हम ख़त्म कर डालेंगे।“

और वाक़ई अगले छह घंटों में जोसफ लगातार व्यस्त रहा, पहले तो वह गाँव गया। एक मेहतरानी को बुला लाया, पाँच सौ रुपये की शर्त पर मेहतरानी फूलमतिया ने रुकीमिआ को नहलाया-धुलाया साफ़ कपड़े पहना दिए; गंदे कपड़े, धोकर वहीं छप्पर के कोने पर पसार दिया। बालों को कंघी करके दो चोटी गूँथ दीं और झोंपड़ी में झाड़ू लगाकर लीप दिया।

इस बीच जोसफ पैदल मुख्य तक जाकर एक खाट ख़रीदकर लाया, साथ में साबुन बाल्टी, रस्सी लोहे की बड़ी कीलें, पतली नली नेट लगा हुआ और बाल्टी, मग वग़ैरह। वह दो छोटे स्टूल भी ले आया। वापस लौटने पर जोसफ लीपी-पुती झोंपड़ी में साफ़ कपड़े पहने रुकीमिआ  को देखकर ख़ुश हो गया। कोने में गोईठा का टुकड़ा सुलग रहा था, मच्छर भगाने के लिए।

◘ ◘

उस समय हमें नहीं पता था कि वह क्या करने वाला है। उसने केले के एक पेड़ को चुना उसकी मोटी छाल दो भागों में उतारी, काॅनकेव गोलाई को पानी की धार बहने देने के लिए जोड़ा और आगे पीछे कई चीज़ें जोड़कर पानी की व्यवस्था की। धीरे-धीरे उसका बनाया हुआ चुटपुटिया यंत्र तैयार हो गया, जिसके मूल में था कि रुकीमिआ बाल्टी को अपनी झोंपड़ी के कोने में रक्खी जगह पर रस्सी खींच-खींच भर सकती थी। पानी से हाथ मुँह धो सकती थी, प्यास भी बुझा सकती थी।

इसके पहले मैंने ऐसी कारीगरी नहीं देखी थी, ऐसा पाॅज़िटिव एट्यीट्यूड का और इतना क़ाबिल सोशलवर्कर नहीं देखा था, ऐसी दक्षतापूर्ण सहायता भी नहीं देखी थी। जोसफ का सूट-बूट कब का उतर चुका था। एक कर्मठ इंसान हाफ पैंट पहने हुए घंटों कार्यरत रहा।

साँझ से आकर मिलने वाली उस रात्रि को जोसफ के दक्ष कार्यकलापों ने जगमगा दिया था।

◘ ◘

सुबह हमारा लौटने का कार्यक्रम था। शिबराय और मैं, वापसी के लिए निकलने को हुए तो पता चला, जोसफ वहीं रुक रहा था, वह बढ़ई के पास जाएगा अपनी ज़रूरत की लकड़ियों के टुकड़े कटवाकर उन्हें जोड़-जाड़कर रुकीमिआ के लिए छोटी सी ऐसी कुर्सी गाड़ी बनाएगा जिसके बल पर वह रुकमिआ कभी-कभी झोपड़ी के बाहर स्वयं ही निकल सकेगी।

◘ ◘

जोसफ की वहाँ खड़ी आकृति इतने वर्षों बाद भी मेरे मन में वैसी ही स्फूर्तिपूर्ण है और उसके कहे वाक्यों की छाप भी – 

“बहुत साल पहले चर्च के फादर ने मुझे झाड़ग्राम स्टेशन पर सूखी-बासी रोटी को खाते देखा था। वे मुझे उसी हाल में छोड़कर आगे नहीं बढ़ गए थे। वे मैले-कुचैले भूखे बच्चे को घर ले आए थे। मेरे सिर पर हाथ रक्खा था, पढ़ाया-लिखाया था, उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा था। आज मैं जो भी हूँ फादर की उसी दयालुता के कारण ही हूँ।” 

जोसफ रुककर कुछ सोचने लगा था, फिर उसने बात पूरी की थी – 
”ऐसे में, मैं रुकीमिआ को यहाँ इस हाल में छोड़कर कैसे जा सकता हूँ?“ 

“‘सोसायटी-लोन’ चुकाए बिना कैसे रह सकता है कोई। सोसायटी-लोन है यह। परम्परा कहिए या गाॅड-फ़ीयर। लेकिन एक को जो मिला, उसे और बढ़ाकर दूसरे को देने का नियम है हमारी सोसायटी में। मैं भी इसे निभाने की कोशिश करता हूँ, अपने तहत। इट् इज़ अ वे ऑफ़ लाइफ़।“

- जोसफ के चेहरे पर मात्र सच की आब थी।

हम उस सुबह तो वापस नहीं निकल पाए थे औरइआ गाँव से, लेकिन शाम होने पर वापसी की यात्रा शुरू हुई थी। रबिराय आश्चर्यजनक रूप से चुप थे। अदृश्य चुप्पी तो मेरे हृदय में भी छा गई थी। वापसी की यात्रा में जोसफ की आकृति दिल में गड़ी रह गई थी। गाँव की पगडंडी पर खड़ा वह देर तक हाथ हिलाता रहा था–

”बाय!“

”बाय-बाय!“

◘ ◘

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कहानी
कविता
गीत-नवगीत
साहित्यिक आलेख
शोध निबन्ध
आत्मकथा
उपन्यास
लघुकथा
सामाजिक आलेख
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ