विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

प्रसव नहीं था, रण था
क्या जानो तुम, कितना
मुश्किल क्षण था।
नहीं समझ पाएँगे वो
जो मखमल पर सोते हैं।
कैसे ज़िंदा रहते हैं वे शिशु
जो पैदा सड़कों पर होते हैं।
भूख, धूप से झुलसी देह
मीलों सड़कों पर चलती
जाती है।
नहीं फ़र्क पड़ता उनको
जिनके जुमलों की दिन दिन
बढ़ती ख्याति है।
यूँ तो हर स्त्री का प्रसव ही
रण होता है।
पर हम जैसी मज़दूर स्त्रियों का
जीवन ही 'मरण' होता है।

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