विशेषांक: दलित साहित्य

19 Sep, 2020

क्या हम मनुष्य नहीं हो सकते?

कविता | सतीश खनगवाल

मेरा रंग रूप
नैन नक़्श 
बल, बुद्धि और प्रकृति 
थोड़ी बहुत भिन्न हो सकते हैं 
परन्तु फिर भी मैं हूँ
तुम्हारे जैसा
यहाँ तक कि दुनिया में
तुम्हारी ही तरह
आता और जाता हूँ
फिर कैसे 
मैं हिन्दू
तुम मुसलमां
मैं सिक्ख और
तुम ईसाई?
 
मेरे जैसे होने के बाद भी
तुमने नहीं छोड़ा मेरे लिए 
कुछ भी
समस्त संसाधनों पर 
करके अपना अधिकार
आज तुम पूँजीपति
और मैं निर्धन
मेरे हिस्से को खाकर
मेरे ऊपर ही अत्याचार करते हुए
क्या तुम्हें थोड़ी भी शर्म नहीं आती?
 
तुम्हारे जैसा ही रक्त 
बह रहा है मेरी धमनियों में
फिर भी 
घोषित कर रखा है देवता
तुमने अपने आपको
और मुझमें तुम्हें मानव भी
दिखता नहीं
एक ख़ून सनी योनि से
बाहर आकर भी
तुम कैसे सर्वश्रेष्ठ
और मैं नीच
तुम ब्राह्मण देवता
और मैं दलित-शूद्र?
 
मैं जन्म देती हूँ तुम्हें
फिर भी तुम्हारे समकक्ष नहीं
कभी नहीं देते तुम मुझे 
पूर्ण अधिकार
कब तक संतुष्ट करते रहोगे
अपने पुरुषवादी अहम् को
और मानते रहोगे मुझे 
अपना आधा अंग ही
 
रंग-रूप, धर्म-जाति, 
धनी और निर्धन
स्त्री और पुरुष का भेद मिटाकर
क्या हम मनुष्य नहीं हो सकते?
 

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