विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

वह बहुत ख़ुश थी
उसे यहाँ पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई थी।
उत्साह से वह बताने लगी,
जब थी पाँच की तभी से 
दादा ही सुनाते थे मानस
बिठाकर पास प्यार से।
और जब हुई दस की तो नानी ने ही कह सुनाई
कथा कामायनी की,
एक-एक पन्ना बाँचकर बताया था माँ ने
जब वह हुई पन्द्रह की
पिता के घर अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं
अलमारियों में किताबें ही किताबें
जो पकड़कर हाथ बिठा लेती थी उसे अपने पास
खेल ही खेल में 
किताबों की सीढ़ियाँ बनाकर जब वह 
चढ़ बैठी उन अलमारियों के ऊपर तो सरक गई छत आप ही आप
घर के ऊपर एक दूसरा घर था
एक घर से दूसरे घर में आते-आते वह पच्चीस की हो गई थी। 
यहाँ भी किताबों से भरी अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं
जिन्हें सीढ़ियों सी लाँघती वह अचानक मेरे सामने थी,
हँसती- खिलखिलाती
मासूस सी बतियाती
“अरे यहाँ पहुँचना कौन बड़ी बात है,
मेरे घर से तो सीढ़ियाँ सीधे आकर यहीं ख़त्म होती हैं।“
“सच”,  उसने गले के बीच चुटकी से पकड़कर
“क़सम से” कहा।
“और आप कैसे आईं?”
अब मेरी बारी थी
उसने मेरी आँखों में झाँका।
उसका मासूम चेहरा बेहद ख़ूबसूरत था।
’मैं’...; मैं ज़रा उलझी, फिर सुलझी, फिर बोली---
’अरे मुझे तो पता भी नहीं था कि 
यह भी कोई जगह है जहाँ आया जा सकता है?’
’हैं....???” उसने आँखें सिकौड़ी।
मैं तो घर से स्कूल को चली थी
स्कूल के बग़ीचे में बीचों बीच एक बिल था जिसमें
खरगोश एक झाँकता था बाहर कभी- कभी
न जाने क्यों वह मुझे भा गया।
बस उसे पकड़ने को मैं जा घुसी उसी बिल में।
भीतर सुरंग थी,
काली-अँधेरी, टूटी-फूटी
जंग खाई किसी पुरानी पाईप लाईन सी।
बड़े-बड़े पत्थर पड़े थे बीच में 
जो हटाये मैंने इन्हीं हाथों से
अकेले
सालों साल भीतर ही खिसकती रही थोड़ा-थोड़ा।’
मैंने देखा उसकी आँखें फैलने लगी हैं
वह रोमांचित सी मुझे सुन रही है।
“आपके घर से कोई नहीं आया मदद को?”
उसने एक ही साँस में पूछा
’आए न, एक एक कर सब आए
माँ-पिता , भाई-बहन
पर वहीं बिल के मुहाने पर ही खड़े रह गए।’
“हमने तो नहीं देखा कोई खरगोश
यहाँ कभी,”
सभी बतिया रहे थे।
बाहर भीड़ जुटी थी।
किसी को समझ ही नहीं आ रहा था
आख़िर स्कूल की इतनी समझदार लड़की
ऐसे कैसे किसी बिल में घुस गई।
“सच तो, आपको डर नहीं लगा?”
उसने उलझन सी में पड़ कर पूछा।
“डरने का टाईम ही कहाँ था” मैने बताया
मैं तो जुनूनी की तरह उस खरगोश के पीछे,
भाग रही थी।
शायद वह भी चाहता था कि 
मैं उसे पकड़ लूँ।
भागते-भागते वह रुक-रुक कर पीछे देखने लगता..
जब कभी वह ओझल हो जाता मेरी निगाहों से
तो आस-पास की दीवारों पर कोई पहेली सी उभर आती,
कभी कोई सूत्र
कभी कोई सवाल
जैसे ही मैं उन्हें सुलझाती, वह फिर दीखने लगता।
“फिर..” उसने उत्सुकता से पूछा।
फिर क्या, जब वह मेरी पकड़ में आया
तो मैने ख़ुद को यहाँ पाया,
तुम्हारे सामने।”
मैने मुस्कुरा कर कहा।
“वाह यह तो बड़ी मज़ेदार रही, और वह तुम्हारा खरगोश..
कहाँ है मुझे दिखाओ न...’
उसने बड़ी उम्मीद से मेरा हाथ पकड़ कर कहा।
“वह तो मैं अपने बहन-भाईयों को दे आई,
उन्हें विश्वास ही जो न होता था कि ऐसा कोई खरगोश भी है।“
पर अब वह कुछ उदास हो चली थी
वे सारी किताबें जो उसने पढ़ी थीं या उसे पढ़ाई गई थीं उनमें 
ऐसे किसी खरगोश का ज़िक्र ही नहीं था।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कहानी
कविता
गीत-नवगीत
साहित्यिक आलेख
शोध निबन्ध
आत्मकथा
उपन्यास
लघुकथा
सामाजिक आलेख
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ