विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

आज़ाद लबों से डर है उनको
खुले ख़्यालों से डर है उनको
रीत बदलने से डर है उनको
बन्द दिमाग़ों से नहीं
खुली किताबों से डर है उनको
झुकी सहमीं नज़रें वो चाहते
उठती नज़रों से डर है उनको
सवालिया ज़ुबान से डर है उनको
बस पोथी पतरे वो चाहते
सोच समझ से डर है उनको
बस रटा रटाया उगल दो
उड़ता परिन्दा दौड़ता घोड़ा
वो नहीं चाहते
पिंजरे और कनटाप वो बेचते
सेवा में बन गलीचा बिछ जाये
ऐसी औरत उन्हें चाहिये
जिसे रौंद उनमें ओज जगे
बात काटने कहने वाली
दृढ़ औरत से डर है उनको
नये दौर से डर है उनको
जनता नहीं वो प्रजा चाहते
साधक नहीं वो भक्त चाहते
मनुष्य नहीं वो जीव चाहते
वो सवालों से डरते हैं
शब्दकोश से
विस्म्यादिबोधक व प्रश्नचिन्हों को
हटा देना चाहते हैं
भाषा के ज़िन्दापन से
शब्दों की मारकता से डर है उनको
जारी कर रहे हैं वो सरकारी गज़ट में
कुछ भंगिमाएँ
अब उन्हीं में देश बतलायेगा
जैसे हाँ में सिर हिलाना
दुम हिलाना, जीभ लपलपाना
वो हुश कहें तो 
झपट नोच लें
मजाल है कि ज़रा सोच ले
मातृभाषा नहीं वो
आदिम भाषा मारकाट की
भर देना चाहते हैं
भाव भाषा विचार सबको
निरस्त कर देना चाहते हैं
डर है उनको भाषा और
मानुष के संबन्ध से
संबन्ध से उपजी ऊर्जा से
कविता से भाषण से
वो डरे हुए हैं 
क्योंकि
उनके पंजे नाख़ून दाँत 
और लार में रैबिज़
जनता पहचान गई है
देश धर्म की आड़ में उनके
इरादे जान गई है
इसी चेतना से डर है उनको
हाँ भाषा मनुष्य और  ज्ञान की
चेतना से डर है उनको
अब जनता उनसे डरना 
छोड़ रही है
इसी बात से डर है उनको

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