विशेषांक: दलित साहित्य

19 Sep, 2020

भीड़ में भी तुम मुझे पहचान लोगे

गीत-नवगीत | जगदीश पंकज

भीड़ में भी
तुम मुझे पहचान लोगे 
मैं निषिद्धों की 
गली का नागरिक हूँ 
 
हर हवा छूकर मुझे 
तुम तक गई है 
गन्ध से पहुँची 
नहीं क्या यन्त्रणाएँ 
या किसी निर्वात में 
रहने लगे तुम
कर रहे हो जो 
तिमिर से मन्त्रणाएँ 
 
मैं लगा हूँ राह 
निष्कंटक बनाने 
इसलिए ठहरा हुआ 
पथ में तनिक हूँ  
 
हर क़दम पर
भद्रलोकी आवरण हैं 
हर तरह विश्वास को 
जो छल रहे हैं 
था जिन्हें रहना 
बहिष्कृत ही चलन से 
चाम के सिक्के 
धड़ाधड़ चल रहे हैं 
 
सिर्फ़ नारों की तरह 
फेंके गए जो 
मैं उन्हीं विख्यात 
शब्दों का धनिक हूँ
 
मैं प्रवक्ता वंचितों का,
पीड़ितों का 
यातना की 
रुद्ध-वाणी को कहूँगा 
शोषितों को शब्द 
देने के लिए ही 
हर तरह प्रतिरोध में 
लड़ता रहूँगा 
 
पक्षधर हूँ न्याय 
समता बंधुता का
मानवी विश्वास का 
अविचल पथिक हूँ

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