तानसेन समारोह 2021: एक झलक 

01-03-2022

तानसेन समारोह 2021: एक झलक 

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

संगीत के क्षेत्र में तानसेन का नाम विश्व विख्यात है। वे संगीत सम्राट हैं। उन्हें शास्त्रीय संगीत के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। ऐसे महान संगीतज्ञ तानसेन का जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर ज़िले के बेहट ग्राम में सन 1506 में पं. मुकुंद मिश्र के घर हुआ। उनका नाम रामतनु रखा गया पर बचपन में उन्हें तन्ना कह कर पुकारा जाता था। मुकुंद मिश्रा एक सम्पन्न व्यक्ति थे और प्रसिद्ध कवि भी थे। 

कहा जाता है कि लगभग 5 वर्ष की उम्र तक तन्ना स्वर-विहीन (गूँगे) रहे पर बाद में वे पशु पक्षियों की आवाज़ की नक़ल  करने लगे। लोक मान्यता है कि तानसेन एक बार एक बाघ की आवाज़ की नक़ल कर रहे थे उसी समय उन्हें तब के प्रसिद्ध संत, संगीतकार और कवि स्वामी हरिदास ने देख लिया; उन्होंने एक पल में ही तानसेन के कौशल को पहचान कर उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। प्रारंभ में तानसेन  ने स्वामी हरिदास के सान्निध्य में वृन्दावन में संगीत की शिक्षा ग्रहण की; विशेष रूप से उन्होंने ध्रुपद का ज्ञान अर्जित किया। हरिदास से तानसेन ने केवल उनकी ध्रुपद कला ही नहीं सीखी बल्कि स्थानिक भाषा में उनकी संगीत रचना भी सीखी।  बाद में उन्होंने कुछ समय तक राजा मानसिंह की विधवा पत्नी मृगनयनी से भी संगीत की शिक्षा प्राप्त की। 

तानसेन ने सूफ़ी संत मुहम्मद गौस से  भी संगीत की शिक्षा ली पर यह शिक्षा लेने वे उनके पास कैसे पहुँचे, इस सम्बंध में काफ़ी मतांतर है। कुछ का कहना है कि स्वयं स्वामी हरिदास महाराज ने उन्हें संगीत की शिक्षा के लिए उनके पास भेजा था जबकि कुछ का मानना है कि  अपने प्रारंभ काल में तानसेन विभिन्न संगीतादि उत्सवों में शिरकत करते थे, यहीं किसी उत्सव में उन्हें मोहम्मद गौस का सान्निध्य मिला, तब उन्होंने उनसे संगीत की शिक्षा ग्रहण की। ऐसा भी कहा जाता है कि जब तानसेन के पिता की मृत्यु हो गई, तो वे काफ़ी उदास रहने लगे और बेहट में ही शिव मंदिर में संगीत साधना करके समय बिताने लगे; इसी दौर में एक समय उनकी मुलाक़ात महान सूफ़ी संत मोहम्मद गौस से हुई। तानसेन के अशांत मन पर उनका बहुत प्रभाव पड़ा। तत्पश्चात तानसेन ने मोहम्मद गौस से लंबे समय तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की। कहा जाता है कि तभी तानसेन ने मोहम्मद गौस को अपना गुरु मान लिया था। 

समय के साथ  तानसेन को संगीत में अद्भुत सफलता मिलती गयी। इनके संगीत से प्रभावित होकर तत्कालीन रीवा–नरेश ने इन्हें अपने दरबार का मुख्य गायक  नियुक्त किया। एक बार रीवा–नरेश के यहाँ अकबर को तानसेन का संगीत सुनने का अवसर मिला। वह इनके संगीत को सुनकर भाव–विभोर हो  गया, तब उसने रीवा–नरेश से आग्रह कर तानसेन को अपने दरबार में बुला लिया। बाद में इनके कालजयी संगीत से प्रभावित होकर अकबर ने इन्हें अपने नवरत्नों में स्थान दिया। 

तानसेन के विषय में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि इनके गायन के समय विभिन्न राग–रागिनियाँ साक्षात् प्रकट हो जाती थीं। यह भी प्रचलित है कि जब यह दीपक राग गाते थे, तो दीपक अपने आप जल उठते थे, जबकि जब ये राग मल्हार गाते थे, तो बेमौसम भी पानी बरसने लगता था। 

महान संगीतज्ञ तानसेन उच्चकोटि के गायक तो थे ही वे निष्णात वादक भी थे। वे एक सफल रचनाकार भी थे। उन्होंने कई हिन्दू पौराणिक कहानियों पर आधारित संगीत रचनाएँ  कीं; इनमें उन्होंने भगवान गणेश, शंकर और विष्णु की महिमा और प्रशंसा का वर्णन किया है। 
उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपनी समस्त रचनायें ध्रुपद शैली में ही कीं। 'राग माला'और 'संगीत सार' उनकी ख्यात रचनाएँ हैं। 

इनके अतिरिक्त तानसेन ने कई ध्रुपद रचे, उनके राग भैरव, मल्हार, रागेश्वरी, दरबारी रोडी, दरबारी कानाडा, सारंग, जैसे कई राग भी अनन्य हैं। संगीत की ध्रुपद शैली तानसेन की ही देन मानी जाती है। निसन्देह संगीत के विकास में उनका अपूर्व योगदान  है। इसलिए उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत का जनक भी माना जाता है।     

तानसेन की मृत्यु 26 अप्रैल 1586 को आगरा में हुई; पर उनकी मंशा के अनुसार उन्हें उनके गुरु मोहम्मद गौस के मक़बरे के पास ग्वालियर में दफ़नाया गया। यहाँ आज भी मोहम्मद गौस और तानसेन की समाधि बनी हुई है।   तानसेन के गायन की उच्च स्थिति को समझने के लिए रहीम जी का यह दोहा ध्यातव्य है:

विधिना यह जिय जानि के शेषहि दिये न कान। 
धरा मेरु सब डोलि हैं, सुनि तानसेन की तान। 

तानसेन के जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालने वाले स्वामी हरिदास महाराज के बाद सर्वसधिक प्रभाव मोहम्मद गौस का पड़ा। 

कहा जाता है कि मोहम्मद गौस एक अफ़गान राजकुमार थे, जो बाद में सूफ़ी संत बन गये। एक सूफ़ी संत के रूप में मोहम्मद गौस ने, गुजरात  की यात्रा की और वहाँ दस साल  भी बिताये। 

मोहम्मद गौस सूफ़ी संत थे, वे सूफियों के सत्तारी संप्रदाय के अनुयायी थे। प्रसिद्ध इतिहासकार अज़ीज़ अहमद  का मत है कि सत्तारी संप्रदाय के सूफ़ी संत भारतीय योगियों की तरह कंद, मूल, फल और पत्तियों से अपना भरण पोषण करते थे। भारतीय योगियों  की तरह ही  ध्यान, धारणा व समाधि आदि आध्यात्मिक व शारीरिक क्रियाएँ करते थे। मोहम्मद गौस भी इसी परम्परा का निर्वहन करते थे। मोहम्मद गौस सूफ़ी संत तो थे ही वे उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे।  “गुलज़ारे अबरार“ नामक ग्रंथ उनकी ही रचना है। 

ग्वालियर में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। इस पावन भूमि ने संगीत जगत को अनेक संगीत प्रतिभायें दी हैं। इसलिए यहाँ एक कहावत ही चल पड़ी है: “यहाँ बच्चे रोते भी हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में।”

कृतज्ञता हमारा स्वभाव है, संस्कार है। ग्वालियर और मध्यप्रदेश महान संगीतज्ञ तानसेन के प्रति आभारी है।  तानसेन और उनके संगीत-प्रदेय को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए ग्वालियर में  संगीत सम्राट तानसेन की समाधि पर प्रति वर्ष लब्ध प्रतिष्ठ तानसेन समारोह आयोजित किया जाता है। इन पंक्तियों का यह अकिंचन लेखक स्वयं सन 2000 से 2009 तक इस प्रतिष्ठित समारोह का एक नियमित श्रोता रहा है . . . इस वर्ष सन 2021 में 97वाँ समारोह आयोजित किया गया। 

संगीत स्वयं में जीवन-राग है। संगीत हमें  आकर्षित करता है, प्रेरित करता है, यह हमें अवसाद से प्रसन्नता की ओर ले जाता है। अब चिकित्सा जगत में भी संगीत की उपादेयता स्वीकार की जा रही है।  वैज्ञानिक  अनुसंधानों से भी यह प्रमाणित हुआ है कि संगीत का पशु, पक्षी, वनस्पति, फ़सलों आदि पर भी  सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।  संगीत का यही आकर्षक, मनमोहक रस प्रतिवर्ष बरसता है तानसेन समारोह में। 

भारतीय शास्त्रीय संगीत की सनातन परंपरा के  श्रेष्ठ संगीत मर्मज्ञ तानसेन को स्वरांजलि के रूप में शृद्धाजंलि देने हेतु  ग्वालियर में 25 दिसम्बर 2021 से 30 दिसम्बर 2021 तक भव्य संगीत समारोह का  आयोजन हुआ। 

सन्‌ 1924 से प्रारम्भ हुए तानसेन समारोह का आगाज  इस वर्ष समारोह की पूर्व संध्या पर हुआ। इस दिन ग्वालियर सम्भाग के कमिश्नर श्री आशीष सक्सेना की पहल पर  महाराज बाड़ा से “कला यात्रा” निकाली गई। इस मनभावन कला यात्रा में ग्वालियर-चंबल संभाग के समस्त आठ ज़िलों से आए लोक कलाकारों ने अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन की कौशल पूर्ण प्रस्तुति के माध्यम से पारंपरिक लोक गीत एवं लोक नृत्यों का समा बाँधा। लुप्तप्राय चांचड़ लोकनृत्य, पारंपरिक सहरिया आदिवासी नृत्य, प्रसिद्ध कन्हैया गीत और बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ पर केन्द्रित लोक संगीत ने तो नगरवासियों को मंत्र मुग्ध कर लिया। थाईलैण्ड से आई बालिका के कत्थक नृत्य  ने तो सोने में सुहागा कहावत को चरितार्थ किया। 


यह कला यात्रा वस्तुतः नगरवासियों के लिए तानसेन समारोह के निमंत्रण की  एक मनोरंजक कला यात्रा थी। यात्रा में शामिल आठों ज़िलों के कला-जत्थे बारी-बारी से आगे बढ़े और महाराज बाड़े की तरह ही गोपाचल, फूलबाग व लोको रोड़ पर अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते हुए “गमक” आयोजन स्थल तक पहुँचे। इन लोक कलाकारों ने  अपने नृत्य की जो पावन सरिता  बहाई वह अविस्मरणीय बन गयी। महाराज बाड़े के अलावा एक कला यात्रा ग्वालियर के ऐतिहासिक किलागेट से भी निकली। इस यात्रा में शामिल लोक कलाकार भी अपना नृत्य कौशल प्रस्तुत करते हुए पूर्वरंग “गमक“ कार्यक्रम स्थल इंटक मैदान पहुँचे। 

25 दिसम्बर 2021 को सायं 7 बजे इंटक मैदान हजीरा पर  पूर्वरंग “गमक“ का आयोजन किया गया। पूर्वरंग “गमक“का आयोजन सन 2016 से जनसामान्य के लिए निरन्तर होता आ रहा है। इस आयोजन में उपशास्त्रीय एवं सुगम संगीत प्रस्तुति के लिए देश के चोटी के लोकप्रिय कलाकार को आमंत्रित किया जाता रहा है। 

गमक के शाब्दिक, सांगीतिक और ध्वन्यार्थ को सार्थक करने के लिए इस वर्ष उपस्थित थे, दुनिया में सुविख्यात पंजाबी सूफ़ियाना गायकी के सरताज पद्मश्री पूरनचंद्र बडाली एवं उनके सुयोग्य पुत्र उस्ताद लखविंदर बडाली। जब उस्ताद पूरन चंद वडाली अपने पुत्र लखविंदर वडाली के साथ गमक के मंच पर हुए तो उपस्थित श्रोताओं में हर्ष की लहर दौड़ गई। उपस्थित रसिक समुदाय ने भाव-विभोर होकर  तालियों की गड़गड़ाहट से  उनका स्वागत किया। इसके बाद म. प्र. शासन संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव श्री शिवशेखर शुक्ला एवं ग्वालियर संभागायुक्त  श्री आशीष सक्सेना सहित अन्य अतिथियों ने पद्मश्री पूरन चंद वडाली व लखविंदर वडाली  व सभी संगत कलाकारों का स्वागत किया। 


पद्मश्री पूरन चंद्र वडाली ने तानसेन को यह कहकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए कि  तानसेन कहीं गए नहीं हैं वह तो रूहानी आत्मा है जो हमारे सबके बीच यहीं है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज उनके दर पर हम हाज़िरी लगाने आये हैं। 


इसके बाद अपनी प्रस्तुति देते हुए उन्होंने पढ़ा:

"जितना दिया है सरकार ने मुझको उतनी मेरी औक़ात नहींं, 
ये तो करम है उनका बरना मुझमें तो कोई बात नहींं।”

इसके बाद उन्होंने एक से एक बढ़कर ऐसे मीठे-मीठे नायाब कलाम अपने अंदाज़ में प्रस्तुत किये कि रस मग्न श्रोता झूम उठे। 

भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण  “तानसेन समारोह“ की औपचारिक शुरूआत 26 दिसम्बर शनिवार की सुबह पारंपरिक ढंग से  हजीरा स्थित तानसेन समाधि स्थल पर शहनाई वादन, हरिकथा, मिलाद, चादरपोशी और क़व्वाली गायन  से हुई। इस अवसर पर उस्ताद मजीद खाँ एवं साथियों ने रागमय  शहनाई वादन किया। इसके बाद ढोलीबुआ महाराज नाथपंथी संत श्री सच्चिदानंद नाथ जी ने आपने संगीतमय आध्यात्मिक प्रवचन में मनुष्य और ईश्वर के अनन्य सम्बन्धों की सुंदर व्याख्या की। उन्होंने सर्व धर्म समभाव का प्रतिपादन करते हुए अल्लाह और ईश्वर, राम और रहीम, कृष्ण और करीम, ख़ुदा और देव सबको एक ही निरूपित किया। उनका कथन था कि ईश्वर हर मनुष्य में विद्यमान है, अस्तु हमें सदैव परहित में निरत रहना चाहिए। ढोलीबुआ महाराज की सांगीतिक हरिकथा के बाद  मौलाना इकबाल लश्कर कादिरी ने इस्लामी फ़लसफ़े के अनुसार मिलाद शरीफ़ की तकरीर सुनाई। उन्होंने कहा सबसे बड़ी भक्ति मोहब्बत है।  

कौन हैं ढोली बुआ महाराज? इसे मेरी उदासीनता कहा जाय या अल्पज्ञता कि सन 1976 से पहले  मुझे ग्वालियर के ढोली बुआ महाराज मठ के बारे में कोई विशेष जानकारी  नहीं हो सकी। सन 76-77 में भी लगभग 10, 11 माह ग्वालियर में रहा पर अधिक जानकारी के लिए न तो एतदसम्बन्धी कोई साहित्य खोज सका  और न ही कोई ऐसा विद्वान कि जो मुझे ढोली बुआ महाराज और मठ की प्रामाणिक जानकारी दे सके। सन 2001 में मुझे पुनः ग्वालियर के लंबे प्रवास (2001 से 2012 कुछ अवधि छोड़कर) का अवसर मिला और तभी मैं कुछ जान सका, ढोली बुआ महाराज और मठ के बारे में। 

ग्वालियर के प्रसिद्ध ढोली बुआ महाराज मठ का प्रारंभिक सम्बन्ध नाथ सम्प्रदाय से है। नाथ सम्प्रदाय के आदि गुरु आदियोगी आदिनाथ सर्वेश्वर भगवान महादेव सदाशिव है। लगभग मध्य युग में अस्तित्व में आया यह पंथ हठयोग  साधना पद्धति पर आधारित है। इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए हैं-भगवान शिव के बाद प्रथम गुरु मच्छेंद्र नाथ 8वीं, 9वीं सदी के योग सिद्ध, “तंत्र“ परंपराओं और अपरंपरागत प्रयोगों के लिए मशहूर माने जाते हैं। इनके बाद गुरु गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) का नाम आता है। 10वीं-11वीं शताब्दी के  यह संत गुरु  सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इनसे पहले नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में अस्त-व्यस्त रूप में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने ही इस सम्प्रदाय का एकत्रीकरण किया। इन्हें मठवादी नाथ संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है। इन्हें ही  योग विद्याओं को व्यवस्थित करने,  संगठन  खड़ा करने वाला और हठ योग सम्बन्धी ग्रंथों का प्रथम रचनाकार माना जाता है। इस सम्प्रदाय के नौ नाथ गुरु 1. गुरु मच्छेंद्रनाथ  2. गुरु गोरखनाथ 3. गुरु जालंदरनाथ 4. गुरु नागेशनाथ 5. गुरु भर्तृहरिनाथ 6. गुरु चर्पटीनाथ 7. गुरु कानीफनाथ 8. गुरु गहनीनाथ 9. गुरु रेवननाथ मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त गुरु चौरंगीनाथ, गुरु  गोपीचन्दनाथ, गुरु रत्ननाथ, गुरु धर्मनाथ, गुरु मस्तनाथ आदि भी उल्लेखनीय संत हुए हैं। ध्यातव्य है कि भारत में नाथ सम्प्रदाय को गुरुओं, संतों को संन्यासी,  योगी, जोगी, नाथ, अवधूत आदि नामों से जाना जाता है।  

ग्वालियर का ढोली बुआ महाराज मठ इसी नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की परम्परा का है। संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे। इनका जन्म सन 1275 ईसवी में महाराष्ट्र के  औरंगाबाद जिले में पैठण के पास गोदावरी नदी के किनारे आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। सन्त ज्ञानेश्वर का दर्शन नाथ संप्रदाय,  वारकरी,  वैष्णव संप्रदाय आधारित था।  ये संत नामदेव के समकालीन थे। इन्होंने उनके साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराते हुए समता, समभाव का उपदेश दिया। 

ध्यातव्य है कि ग्वालियर में भक्ति और ज्ञान की यह परम्परा महाराष्ट्र के पैठण से काशी विश्वनाथ होते हुए सन्त ज्ञानेश्वर परम्परा के सन्त महिपति नाथ द्वारा लाई गई। सन्त महिपति नाथ ने सन 1822 में ग्वालियर के प्रसिद्ध हठयोगी सन्त अण्णा महाराज के अनुरोध पर यहाँ के तत्कालीन नरेश महाराज दौलतराव को राजयोग की दीक्षा दी। यही वह समय था जब ग्वालियर में नाथ संप्रदाय की नींव पड़ी। 

सन्त महिपति नाथ के समाधिस्थ हो जाने पर उनकी स्मृति में सन्त काशीनाथ महाराज ने ग्वालियर में खासगी बाज़ार में उनकी समाधि के पास “ढोली बुआ मठ “ बनवाया। मठ के पास स्वर्ण रेखा नदी पर बना सेतु “ढोली बुआ पुल“ कहा जाता है। इस प्रकार ग्वालियर में सन्त महिपति नाथ “नाथ सम्प्रदाय“ और “ढोली बुआ मठ“ के आदि गुरु हैं। ग्वालियर में ढोली बुआ परम्परा में सन्त महिपति नाथ के बाद सन्त नारायण नाथ, सन्त निर्मल नाथ, सन्त अमर नाथ, सन्त काशी नाथ, सन्त भोलेनाथ, सन्त दाजीनाथ, सन्त आपानाथ, सन्त लक्ष्मण नाथ, सन्त गंगाधर नाथ, सन्त बालकृष्ण नाथ, सन्त गोविंद नाथ, सन्त दत्तात्रय नाथ, सन्त रंगनाथ, सन्त वासुदेव नाथ, सन्त श्रीकांत नाथ हुए। मठ में इन सब संतों की पक्की समाधियाँ बनी हुई हैं। ढोली बुआ महाराज मठ शैवमत शाखा का होने के कारण मठ के ऊपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी मठ में औलिया प्रकृति के सन्त महिमति नाथ की गीत रचनाओं की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ संरक्षित हैं। 

ढोली बुआ पंथ के सन्त लोक जीवन में ज्ञान  की अपेक्षा भक्ति और कर्म के सिद्धान्त  को अधिक महत्त्व देते हैं और नाम संकीर्तन की महिमा का गायन करते हैं। ढोली बुआ पंथ में सहज साधना, शक्तिपात दीक्षा, मधुकरी याचना और संगीतमय हरिकथा का विशेष महत्त्व है। 

पंथ का नाम “ढोली बुआ“ पड़ने का कारण पूर्णतः आध्यात्मिक है। यह कहा जाता है कि जब सन्त  शिवदीन नाथ को अपने गुरु सन्त केशरीनाथ में ईश्वर का साक्षात्कार हुआ तब उन्होंने इस अनुभव की सूचना जन सामान्य को ढोल बजाकर दी थी। तभी से इन संतों में ढोल बजाकर सन्देश प्रसारित करने और ढोल बजाकर ही मधुकरी याचना करने की परंपरा  चली जो आज भी निरन्तर जारी है। सन्त शिवदीन नाथ के पुत्र और शिष्य सन्त नरहरि नाथ को दीक्षा और बाना (वस्त्राभूषण) के समय जो ढोल भेंट में दिया गया था वह आज भी ढोली बुआ मठ में सुरक्षित है। इसी ढोल के कारण इस पंथ का नामकरण “ढोली बुआ“ हुआ। इसी कारण से इस परंपरा के सभी संतों के नाम के साथ “ढोली बुआ“ शब्द जुड़ना शुरू हुआ। 

ढोली बुआ मठ के वर्तमान उत्तराधिकारी परम् सन्त श्रीकांत नाथ के यशस्वी पुत्र सन्त सच्चिदानंद ढोली बुआ और सन्त वासुदेव नाथ के तेजस्वी पुत्र सन्त बप्पा नाथ महाराज हैं। 

ढोली बुआ परंपरा के हरिकथा गायन में अभंग, लावणी, ध्रुपद, ठुमरी राग-रागिनियों और संगीत शैलियों का मंजुल समन्वय रहता है। इस हरिकथा की एक और बड़ी विशेषता सर्व धर्म समभाव है। 

महान संगीतज्ञ तानसेन की पावन स्मृति में आयोजित 97वें तानसेन समारोह  की 26 दिसम्बर 2021 को आयोजित पहली सभा में प्रथम प्रस्तुति शासकीय माधव संगीत महाविद्यालय के विद्यार्थियों के प्रशस्ति एवं ध्रुपद हुई। इसके बाद प्रख्यात घटम वादक एवं राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित पद्मभूषण पं. विक्कू विनायकम ने जब अपने मटके पर अपनी सधी हुई थाप जमाई तो घटम के नाद से ऐसी ध्वनि गूँजी कि रसिक आत्म विभोर होकर झूम उठे। सुविख्यात युवा सितारवादक नीलाद्री कुमार की उँगलियों ने तो सितार पर तंत्रकारी के ऐसे रंग जमाए कि पंडाल में उपस्थित श्रोताओं का मन मयूर नाच उठा। 

आज की संगीत सभा की प्रस्तुति में पद्मभूषण पंडित विक्कू विनायकम के घटम वादन  में तीन पीढ़ियाँ एक साथ थी। स्वयं विक्कू विनायक ने घटम वादन किया, जबकि उनके पुत्र वी सेल्वगणेश एवं पौत्र स्वामीनाथन सेल्वगणेश खंजीरा बजा कर समा बाँध दिया। 

इसी प्रथम संगीत सभा में तानसेन समाधि परिसर में संगीत मनीषी तानसेन को स्वरांजलि अर्पित करने आये देश और दुनिया के ब्रह्मनाद के शीर्ष साधकों की उपस्थिति में मध्यप्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने दीप प्रज्ज्वलित कर तानसेन समारोह का भव्य शुभारंभ किया। इस अवसर पर केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर व केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया बतौर विशिष्ट अतिथि शामिल हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश की संस्कृति, पर्यटन एवं अध्यात्म विभाग की मंत्री श्रीमती ऊषा ठाकुर ने की। इनके अलावा इस शुभारंभ समारोह में प्रदेश के कई मंत्री व अनेक गणमान्य नागरिकों ने उपस्थित रहकर समारोह की शोभा बढ़ाई। इस अवसर पर मुख्यमंत्री जी ने सिद्धेश्वर मंदिर ओंकारेश्वर की थीम पर बने भव्य एवं आकर्षक मंच पर देश के सुप्रतिष्ठित सितार वादक पं. कार्तिक कुमार मुम्बई और सुविख्यात घट्म वादक पद्मभूषण पं. विक्कू विनायकम चैन्नई को 2 लाख रुपए की आयकर मुक्त सम्मान राशि, प्रशस्ति पट्टिका व शॉल-श्रीफल देकर क्रमश: वर्ष 2013 व 2014 के “राष्ट्रीय कालिदास सम्मान“ से अलंकृत किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री जी ने दो महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ कीं—पहली कि अब तानसेन कालिदास सम्मान की सम्मान राशि 5 लाख होगी। दूसरी यह कि तानसेन समारोह की तर्ज़ पर बैजू बावरा समारोह का आयोजन भी  किया जाया करेगा।  

तानसेन समारोह के इस गरिमामय मौक़े पर मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने सर्व प्रथम सूफ़ी संत मोहम्मद गौस, संगीत सम्राट तानसेन के मक़बरे और तानसेन के सुपुत्र की मज़ार पर पहुँचकर चादरपोशी की। मुख्यमंत्री श्री चौहान के साथ केन्द्रीय मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर व श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा श्री प्रद्युम्न सिंह तोमर व राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार श्री भारत सिंह कुशवाह सहित अन्य अतिथिगण भी चारपोशी करने पहुँचे। चादरपोशी के बाद अतिथियों ने तानसेन समारोह दशक मेंं श्रीदिनेश पाठक प्रणीत पं रवि शंकर पर केंद्रित पुस्तक का विमोचन किया। 

दिनांक 27 दिसम्बर सोमवार को द प्रात: 10:00 बजे से प्रारंभ दूसरी सभा का आग़ाज़ राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय के आचार्यों और छात्रों के ध्रुपद गायन से हुआ। इस सभा में मुंबई से पधारे तेजस विंचूरकर एवं मिताली खरगोणकर ने बाँसुरी और तबला की जुगलबंदी से दर्शकों का मन मोह लिया। पुणे के श्री संजय गरुण के गायन और इंदौर के मनोज सराफ के ध्रुपद गायन को भी भरपूर सराहना मिली। 

संगीत के महान समागम तानसेन समारोह  की सोमवार की प्रातःकालीन सभा का समापन सुविख्यात सारंगी वादक पं. भारत भूषण गोस्वामी के सारंगी वादन से हुआ। आयोजकों के अनुरोध पर नई दिल्ली से पधारे पं. भारत भूषण जी ने राग “जौनपुरी“ मेंं सारंगी वादन किया। उन्होंने इस राग मेंं विलंबित गत एक ताल मेंं और द्रुत लय तीन ताल मेंं प्रस्तुत की। ततपश्चात उन्होंने मिश्र भैरवी मेंं बनारस घराने की ठुमरी व दादरा की मधुर तान छेड़ी। तबले पर उस्ताद सलीम अल्लाहवाले की  संगत मेंं पं. भारत भूषण जी ने अपना सारंगी वादन  बहुत ही सुरीले अंदाज़ मेंं पेश कर समा बाँध दिया। 

दिसम्बर 27 सोमवार  शाम को लब्ध प्रतिष्ठ तानसेन समारोह 2021 की तीसरी  सभा का शुभारंभ शंकर गान्धर्व संगीत महाविद्यालय के  शिक्षकों एवं छात्रों के ध्रुपद गायन से हुआ। राग यमन मेंं चौताल की बंदिश के बोल थे, “जय शारदा भवानी।”  

इसके बाद विश्व संगीत शृंखला मेंं  अर्जेंटीना के लेटिन मूल के देसिएतों आनंदते ने एकॉस्टिक गिटार के साथ कई धुनें और गीत प्रस्तुत किए। इसके साथ ही उन्होंने कई स्पेनिश संगीतिकाएँ और लेटिन अमेरिकी संगीत लय-ध्वनियाँ भी  पेश की। आपने बोलेरो पद्धति मेंं सालसा स्टाइल मेंं  भी कुछ गीत पेश किए। इनकी ऊँची तान के साथ प्रस्तुत नैसर्गिक गायकी से रसिक  मंत्रमुग्ध से हो गए। इसी सभा मेंं कालिदास सम्मान से विभूषित  मूर्धन्य ध्रुपद गायक 85 वर्षीय पंडित अभय नारायण मलिक ने अपनी कलात्मक एवं कठिन तानें, पारंपरिक फिरत, मुर्की तथा अद्भुत कल्पनाशीलता के बीच अनुपम राग पेश किए। सुरों की शुद्धता और कंठ मिठास ने भी उनके गायन मेंं चार चाँद लगा दिए। मधुरस मेंं पगी गायकी के साथ पखावज पर  तेजतर्रार अंगुलियों और थाप से उपजे नाद ने ऐसा माहौल रचा कि रसिक झूम उठे। 

उनकी पहली प्रस्तुति राग विहाग की थी। धमार मेंं बंदिश के बोल थे, “कहाँ ते आये हो गोपाल गुलाल लगाए“ इस बंदिश को उन्होंने अपने पूरे कौशल के साथ  पेश किया। आपके साथ पखावज पर पंडित संगीत पाठक एवं श्री रानू मलिक ने संगत की जबकि सारंगी पर श्री भारतभूषण गोस्वामी एवं जनाब आबिद हुसैन ने साथ दिया। तानपूरे पर सुश्री लता मलिक दुबे ने संगत की। 

तानसेन समारोह 2021की 28 दिसम्बर  मंगलवार को आयोजित  प्रातःकालीन सभा का आग़ाज़ पारंपरिक ढंग से स्थानीय भारतीय संगीत महाविद्यालय के ध्रुपद गायन से हुआ।   राग “देशी” मेंं प्रस्तुत ध्रुपद रचना के बोल थे “रघुवर की छवि सुंदर।” इस प्रस्तुति मेंं पखावज  पर श्री संजय आगले और हारमोनियम पर श्री मुनेन्द्र सिंह ने संगत की।  

इसके बाद  फ़्रांस से आये निष्णात संगीतज्ञ मार्टिन डबॉइस ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के रागों के साथ अद्भुत संगत की। उन्होंने ताल वाद्य के अलावा कोरा व गायन भी किया। उनके द्वारा प्रस्तुत ज़ैज़ संगीत सुनते ही बन रहा था। मार्टिन के गायन-वादन मेंं भारतीय शास्त्रीय संगीत की झलक भी दिखाई दी। अफ्रीकन लोक संगीत से भी उन्होंने श्रोताओं को रू-ब-रू कराया। उनकी आकर्षक प्रस्तुति से एक नूतन संगीत गूँज उठा और रसिक मंत्रमुग्ध हो गए। इन प्रस्तुतियों मेंं रंग भरा  हमारी प्रकृति ने। सुर, थाप के साथ आसमान से गिरती रिमझिम बूँदें ऐसी लग रही थी कि मानो वे संगीतज्ञों के मीठे-मीठे सुरों से  साम्य बनाकर मंच से तादात्म्य साध रही हों। 

इसके बाद इस सभा मेंं इंदौर की तृप्ति कुलकर्णी ने अपने दादरे “नज़रिया लागै नहीं कहीं और” दिल्ली की सुधा रघुरामन ने कर्नाटक संगीत से, वाराणसी की राहुल-रोहित मिश्रा की जोड़ी ने युगल गायन से अद्भुत समा बाँधा। 

इस सभा में मैहर वाद्य वृन्द की प्रस्तुति अत्यधिक आकर्षण का कारक बनी। महान संगीत मनीषी उस्ताद अलाउद्दीन खाँ द्वारा स्थापित विश्व प्रसिद्ध मैहर वाद्य वृंद में शामिल कलाकारों ने समूह वादन के माध्यम से राग देवगंधार व भीम पलाशी प्रस्तुत किये। 
  
समूचे विश्व के समूचे संगीत जगत में अपनी अनूठी व विशेष पहचान क़ायम कर चुका मैहर वाद्य वृंद  परंपरागत एवं दुर्लभ वाद्य यंत्रों का समागम है। इस वर्ष के तानसेन समारोह में इस वाद्य वृंद के प्रमुख डॉ. सुनील भट्ट के नेतृत्व में उन्होंने स्वयं ने पखावज, श्री सुरेश कुमार चतुर्वेदी  ने इसराज, श्री जी पी पाण्डेय उत्तम ने वायलिन, श्री गुणाकर साँवले श्री गौतम भारती ने हारमोनियम, डॉ. अशोक बड़ौलिया और श्री कमल किशोर माहौर ने तबला, श्री रामसुमन चौरसिया  ने सितार, श्री सौरभ कुमार चौरसिया ने नलतरंग और  श्री बृजेश कुमार द्विवेदी ने सरोद का मनमोहक वादन किया।  

सर्दियों में रसभरी गर्मी की अनुभूति कराने वाले महान संगीत समागम तानसेन समारोह 2021 की पाँचवीं के सायंकालीन सभा में सिद्धेश्वर मंदिर ओंकारेश्वर की थीम पर बने नयनाभिराम मंच से “नाद ब्रह्म” के  साधकों ने सुर सम्राट तानसेन को स्वरांजलि अर्पित की। सभा की शुरुआत  स्थानीय तानसेन संगीत महाविद्यालय के ध्रुपद गायन से हुई। राग “भोपाली” में प्रस्तुत ध्रुपद रचना के बोल थे, “केते दिन गए अलेखे।” पखावज  पर श्री जगत नारायण की संगत रही।  

इसके बाद रियो डी जेनेरो विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल कर चुके, तत्पश्चात वाराणसी  से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का अध्ययन कर निष्णात हुए ब्राज़ील के प्रतिष्ठित संगीत साधक मिस्टर पाब्लो ने अफ्रिकन-ब्राज़ीलियन पारंपरिक संगीत प्रस्तुत किया। उनकी प्रस्तुति में पश्चिमी बाँसुरी, गिटार व सिंथेसाइज़र से निकली धुनों ने  सभागार  में उपस्थित जन समुदाय पर जादुई प्रभाव डाला।  

पाब्लो ने अपने गायन-वादन से  भारतीय शास्त्रीय संगीत में समाये सन्देश को बख़ूबी श्रोताओं तक पहुँचाया । इसी सभा में पुणे के पण्डित सुरेश तलवलकर एवं उनके साथियों के तबला वादन ने रसिकों के मन-मानस में एक तिलिस्म सा रच दिया। 

रात जाती है, तभी भोर आती है। इसी भोर की प्रतीक्षा रहती है तानसेन समारोह के कानसेनों को। इस गरिमामय समारोह का आज चौथा दिन है। आज 29 दिसम्बर की छठवीं प्रातःकालीन सभा की शुरुआत  हुई  ध्रुपद कलाकेंद्र ग्वालियर के कलाकारों के ध्रुपद गायन से। इसमें ध्रुपद गुरू श्री अभिजीत सुखदाणे के कुशल मार्गदर्शन में राग “अहीर भैरव” में अलापचारी के बाद धमार पेश किया गया। रचना के बोल थे, “चलो सखी बृजराज।” इसके बाद जलत सूल ताल में बंदिश “दुर्गे भवानी” की मनोहारी प्रस्तुति दी गयी। इस सभा में कोलकाता के पं. सिराज अली का सरोद वादन और कानपुर से आये विनोद कुमार द्विवेदी एवं आयुष कुमार द्विवेदी का युगल ध्रुपद गायन अत्यंत कर्ण सुखद रहा। इसी सभा में मुंबई से पधारे श्री रमाकांत गायकवाड़ ने अपने गायन का आगाज़  राग “तोड़ी” से किया। श्रोताओं ने उनकी प्रशंसनीय प्रस्तुति की मुक्त कंठ से सराहना की। उनके साथ तबले पर श्री अनिल मोघे और हारमोनियम पर श्री महेश दत्त पांडेय ने संगत की। ग्वालियर के सितार वादक पं. भरत नायक की प्रस्तुति ने सबका मन मोह लिया। 

भरत नायक ने अपने सितारवादन के लिए राग “चारूकेशी” चुना। इस राग में उन्होंने अलाप जोड़-झाला के पश्चात विलंबित व द्रुत गति की मर्मस्पर्शी प्रस्तुति दी।  

इसी क्रम में रामपुर संगीत  घराने की  सुप्रसिद्ध गायिका डॉ. सरिता पाठक यजुर्वेदी ने अपना  गायन प्रस्तुत किया। उन्होंने जब राग “गौंड सारंग” में विलंबित एक ताल में बंदिश “गोकुल की गलियाँ सूनी” इसके बाद द्रुत तीन ताल में “झनन-झनन पायल बाजे” का गायन किया तो रसिक झूम उठे।  

तानसेन समारोह की सप्तम सभा में इज़राइल के प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री युसूफ रूस अलौश ने विश्व संगीत के अंतर्गत “बजूकी” वाद्य यंत्र से कर्णप्रिय धुनें निकालकर सुर सम्राट तानसेन को स्वरांजलि अर्पित की। उनकी प्रस्तुति से हमारे गौरव को चार चाँद लगे कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की गमक, धमक कितनी दूर दूर तक गुंजायमान्‌ है। 

बेहट स्वर सम्राट तानसेन की जन्म स्थली है। मौसम कैसा भी हो पर परिस्थितियाँ अति दुर्दम्य न हों तो प्रतिवर्ष होने वाले तानसेन समारोह की एक संगीत सभा बेहट में अवश्य होती हैं। 

बेहट ही वह जगह है जहाँ सुर सम्राट का बचपन बीता, जहाँ उन्होंने बकरियाँ और दीगर पशु चराते हुए संगीत साधना  की। यही वह जगह है जहाँ की झिलमिल नदी की अमराइयों में, शान्त वातावरण में तन्ना ने सुर साधना की। बेहट ही वह पावन स्थल है जहाँ जंगली जानवरों की आवाज़ और पक्षियों के मधुर कलरव ने रामतनु को संगीत की प्रेरणा दी। लोक धारणा है कि जब तानसेन की गायकी समृद्ध हो गयी तब एक दिन तानसेन की तान से ही निर्जन में बना भगवान शिव का मंदिर तिरछा हो गया। यह मंदिर आज भी कुछ तिरछा ही है। इसी मंदिर में विराजमान भगवान भोले का वरदान पाकर लंबे समय तक मूक रहने वाला तन्ना, तनसुख या रामतनु संगीत सम्राट तानसेन बन गया। यहीं 30 दिसम्बर 2021 को प्रतिवर्षानुसार तानसेन समारोह 2021 की आठवीं संगीत सभा भगवान भोले के मंदिर के प्रांगण में, पावन झिलमिल नदी किनारे घनी एवं मनोरम अमराइयों के बीच इसी निमित्त बनाये गए चबूतरे पर सजी। 

सभा की शुरूआत पारंपरिक ढंग से स्थानीय तानसेन कला केन्द्र बेहट के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत ध्रुपद गायन से  हुई। इसमें राग “भैरव“ में आलाप मध्यलय आलाप और द्रुत लय आलाप से शुरू करके सूलताल में बंदिश पेश की गई। "शिव आदि मद अंत योगी“ बोलों को इन विद्यार्थियों ने पूरे कौशल से  पेश किया। श्री संजय पंत आगले ने पखावज पर मनभावन संगत की। उल्लेखनीय है कि इन संगीत प्रस्तुतियों का आनन्द लेने के लिए बेहट और आसपास के गाँवों के सैकड़ों संगीत रसिक तो आते ही हैं ग्वालियर से भी सैकड़ो संगीत प्रेमी निजी और सार्वजनिक वाहनों से पहुँचते हैं। 

पहले ऐतिहासिक तानसेन समारोह का समापन बेहट  में ही किया जाता था पर वर्ष 2016 से समारोह की संगीत सभा का समापन ग्वालियर के ऐतिहासिक स्थल गूजरी महल में किया जा रहा है। गूजरी महल में आयोजित गूजरी संगीत सभा शास्त्रीय संगीत की महिला कला साधकों पर केन्द्रित की जाती है। अस्तु इस बार की नवम संगीत सभा  सारदानाद मंदिर ग्वालियर के ध्रुपद गायन, वैशाली बकोरे इन्दौर के गायन, राधिका  उमडेकर, मुम्बई  के विचित्र वीणा वादन और सानिया पाटनकर पुणे के गायन के लिए 30 दिसम्बर 2021 को सायं गूजरी महल पर आयोजित की गई। 

अब तानसेन समारोह में वादी-जनवादी शृंखला जोड़ी गयी है। राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय, ग्वालियर में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में विमर्श का क्रम निरन्तरता में आयोजित किया जाता  है। इस वर्ष 28 दिसम्बर को अपराह्न 3 बजे पं सत्यशील देशपांडे का “बंदिशों में निहित सौन्दर्य तत्व“  विषय पर सोदाहरण व्याख्यान रखा गया जबकि 29 दिसम्बर को डॉ. नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का “रागमाला-चित्रांकन परम्परा" पर सोदाहरण व्याख्यान रखा गया। 

प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी तानसेन समारोह स्थल पर चित्र प्रदर्शनी लगाई गई। दर्शकों को यह काफ़ी रुचिकर और जानकारी भरी लगी। 

कविवर बिहारी का मत है कि तंत्री-नाद, कबित्त-रस, सरस राग वही समझ सकते हैं जो इनमें पूरी तरह डूब जाते हैं; जो अनडूबे रहते हैं वे डूब जाते हैं, कुछ नहीं सीख पाते हैं। संगीत की स्थिति कुछ कुछ कबीर के इस कथन जैसी है:

“अनहद बाजे नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान॥अविगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान॥        

अर्थात्‌ भक्ति की चरम स्थिति है कि अनहद बजने लगता है और ब्रह्म-नाद सुनाई देने लगता है। उस झरने से ब्रह्म ज्ञान की उत्पत्ति होने लगती है। पूर्ण ब्रह्म देह के अंदर ही प्रकट होने लगता है और प्रेम (भक्ति) के भाव से ध्यान उसी में लगने लग जाता है। यह योग की सहजावस्था ही है जहाँ ब्रह्म स्वंय में ही प्रकट हो जाता है।

(स्रोत https://lyricspandits.blogspot.com/2019/11/anhad-baje-nijhar-jhare-upaje-brahm.html?m=1)

इस तानसेन समारोह की कुछ अप्रतिम विशेषताएँ हैं। यह कि यह समारोह में भारतीय संस्कृति में रची-बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन  होते हैं; कभी कोई विवाद नहीं हुआ, कभी किसी आक्षेप की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। सभी संगीतकार धर्म, सम्प्रदाय के भेद से परे होकर अपनी सांगीतिक प्रस्तुति देते हैं। 

यह कि  समारोह का प्रारंभ शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढ़ोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ़ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफ़ी संत मोहम्मद गौस की मज़ार पर चादर पोशी भी होती है। 

यह भी  कि पहले राज्याश्रय में आयोजित होने के वक़्त और बाद में स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह तो सदैव  केवल भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है।  
यह इस समारोह का शताब्दी दशक है। इसलिए 97 वें तानसेन समारोह के उद्घा‌टन अवसर पर   मुख्यमंत्री महोदय ने घोषणा की है कि सन्‌ 2024 में आने वाला 100 वां तानसेन समारोह भव्य रूप से पूरी गरिमा व धूमधाम के साथ मनाया जाएगा। उन्होंने राष्ट्रीय तानसेन अलंकरण और कालिदास सम्मान की राशि बढ़ाकर 5–5 लाख रुपये  करने की भी घोषणा की। मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने यह भी आश्वस्त किया कि तानसेन की जन्मस्थली बेहट और ग्वालियर के कला संकुल केन्द्र के अधूरे काम शीघ्र पूरे कराये जाएँगे। 

भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा बहुत प्राचीन है। इसकी शुरूआत  सामवेद के गायन  से मानी जाती है। भरत मुनि प्रणीत नाट्य शास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित दस्तावेज़ कहा जाता है। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र के बाद मतंग मुनि की बृहद्देशी और शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ  है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। हमें इस बात का गर्व है कि संगीत के उन्नयन में ग्वालियर का अहम योगदान है। 

 (कार्यक्रम जानकारी म. प्र. शासन जनसंपर्क के बुलेटिनों पर आधारित जबकि अन्य जानकारी  यत्र तत्र प्रकाशित विभिन्न ब्लॉग्स एवं प्रस्तोता के अध्ययन अवलोकन पर आधारित है) 

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