कल्लू 

01-07-2023

कल्लू 

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

श्यामा गौ। 

श्यामा गौ; पर मोहन के अम्मा–दद्दा के लिए वह प्यारी कल्लू थी। मोहन व घर के सभी लोग और मुहल्ला, पड़ोस के भी सभी लोग उसे कल्लू ही कहते थे। यानी कल्लू उसका नाम हो गया था। 

कल्लू एकदम स्वस्थ, सुंदर। सींग मझोले आकार के गर्दन सुडौल। रंग एकदम श्यामल। 

कल्लू उनके घर में कब से थी, मोहन ने न किसी से पूछा, न कभी जानना ही चाहा, न ही कभी किसी ने उसे बताने की आवश्यकता ही समझी। 

मोहन के घर में उसके दद्दा, अम्मा के अलावा एक भाई और था, तीन बहिनें भी थीं। सब बहिनें और भाई मोहन से बड़े थे। सो वह सबका लाड़ला था। 

मोहन ने अपनी अम्मा से सुना था कि बच्चा जनने के हिसाब से गायें दो तरह की होती हैं। वर्षोंड़ यानी जो हर साल बछड़ा/बछिया जने और तिसल्लू यानी जो तीन साल में एक बार बछड़ा/बछिया जने। 

मोहन की श्यामा गौ कल्लू तिसल्लू थी। गाँव में कदाचित तिसल्लू गाय की तुलना में वर्षोंड को अधिक अच्छा माना जाता है। मोहन की अम्मा दयावती की दुनिया ही न्यारी। उन का कहना था कि तिसल्लू गाय अच्छी होती है, लगातार पूरे 18 महीने दूध देती है, वर्षोंड़ बमुश्किल 6 माह ही लगातार दूध दे पाती है। 

कल्लू एक पारी में ढाई, तीन सेर दूध देती थी। सुबह शाम का मिलाकर दूध पाँच छह सेर हो जाता था। दयावती अपने सभी बच्चों को गाय का ही दूध पिलाती थीं। मोहन सबसे छोटा, सबका लाड़ला, उसे जितना मन करता, उतना दूध पीता था। 

एक बात यह कि मुहल्ले के नवजात शिशुओं को गाय का दूध मोहन के घर से ही जाता था। वैद्य जी जब किसी बीमार को ‘पथ्य’ शुरू करते थे, तब भी उसे ‘उफना’ दूध देने के लिए गाय का दूध आम तौर पर मोहन के घर से ही जाता था। उन दिनों गाँवों में दूध बेचने का चलन प्रायः नहीं था। 

मोहन के घर एक दुधारू भैंस भी थी, मोहन की अम्मा उसके दूध से दही, मट्ठा व घी बनाती थीं। इस घी के विक्रय से घर-गृहस्थी के ख़र्चों में मदद मिलती थी। वे गाय के दूध से दही, मट्ठा, घी बनाना सही नहीं मानती थीं। 

इस बार कल्लू ने एक बछिया जनी। बछिया बहुत सुंदर, सलोनी। रंग माँ जैसा ही। बड़ी प्यारी। मोहन के दद्दा किशुन सुबह या शाम जब भी गाय दुहते थे, तब मोहन की अम्मा उन्हें यह हिदायत अवश्य ही देती थीं—बच्चों के लिए और आपके लिए जितना दूध पूरा हो जाये, उतना ही दुहना, बाक़ी बछिया को पीने देना। और किशुन सदैव ऐसा ही करते थे। 

अब किशुन जी के हाथों में कोई तौल-काँटा तो था नहीं सो कभी कभी सेर, अस्सेरा दूध अधिक निकल जाता था या कभी-कभी दूध तो रोज़ाना जितना ही निकला पर किशुन के बच्चे लोगों में से एकाध जने द्वारा दूध पीने में आनाकानी करने या कम दूध पीने से कुछ दूध बच जाता था, उस दिन दयावती उस दूध से खीर बना देती थीं, जिसे सब लोग बड़े चाव से खाते थे। 

दयावती की इस खीर की सामग्री सुन, देख कर तो बहुतेरे इस खीर को खीर ही न माने . . . दूध को मिट्टी की हाँड़ी में ख़ूब गर्म किया, दूध उबलते समय ही इसमें बाजरे का दलिया मिला दिया फिर थोड़ी देर बाद इसमें देसी गुड़ मिला दिया, थोड़ी देर और पकने दिया, लो बन गयी खीर। ऐसी खीर कि इसके सामने सब मिष्ठान फीके। 

उन दिनों गाँव, पड़ोस के सब कहते थे कि मोहन पढ़ने, लिखने में तो तेज़ है पर शरीर से एकदम कृशकाय है। मोहन की अम्मा की धारणा थी कि गाय का दूध पीने से ही मेरा मोहन पढ़ने-लिखने में तेज़ है। उनको यह भी विश्वास था कि मोहन दुबला-पतला अवश्य है पर है बड़ा फ़ुर्तीला। मोहन ताक़तवर है; अपनी अम्मा के अनुरूप ऐसा विश्वास उसे भी हमेशा ही रहा है। 

कभी कभी कुछ रिश्तेदार, शुभ चिंतक दयावती से कहते थे कि आप बच्चों को गाय का दूध देती हो इसी कारण से बच्चे कृशकाय हैं, भैंस का दूध दिया करो, इससे बच्चे तंदुरुस्त बनेंगे। तब वह उनके सामने बात हँसकर टाल देतीं थीं पर बाद में हँसते हुए कहती थीं, “बच्चे तो सुडौल और छरहरे ही अच्छे लगते हैं।”

मोहन की यह कल्लू गाय बड़ी फ़ुर्तीली थी। बहुत मरखू भी। मुहल्ला पड़ोस के सभी लोग उससे डरते थे लेकिन मोहन के अम्मा, दद्दा के सामने कल्लू एकदम सौम्य। उस समय कोई सोच भी नहींं सकता कि यह गाय मरखू भी हो सकती है। कल्लू के मरखू होने का प्रत्यक्ष फ़ायदा यह था कि कोई ऐरा, गैरा, नत्थू खैरा उसके पास फटकने नहीं पाता था, उसे सता नहीं पाता था। 

कल्लू दिन भर हार में चरती, तरह तरह की हरी घास, पत्ती खाती थी, शाम को घर आने पर, एक घण्टे बाद दयावती उसे सानी खिलातीं थीं। 

सानी? 

गेंहूँ के भूसे में लालच मिलाकर सानी तैयार की जाती है। प्रायः भूसे को पानी से भिगोकर इकसार कर लिया जाता है फिर उसके ऊपर बहुत सारा लालच बिखेर कर गीले भूसे को फिर अच्छी तरह मिला लिया जाता है, यही सानी कही जाती है। मोहन की अम्मा और कुछ अन्य लोग भी इस तरह की सानी के अतिरिक्त एक अन्य तरीक़े से भी सानी तैयार करते थे। पहले साफ़ पानी में बेझर का बारीक़ दलिया मिला कर पकाया जाता है, इसमें पकते समय आमतौर पर थोड़ा सा नमक डाल दिया जाता है; कभी-कभी नमक के स्थान पर गुड़ भी डाला जाता है। अब इस पके दलिया को गेंहू के भूसे में अच्छी तरह मिला कर सानी तैयार की जाती है। 

मोहन की अम्मा प्रतिदिन यह दूसरे प्रकार की ही सानी तैयार करती थीं, फिर इसे गाय की लिडौरी में उड़ेल देती थीं फिर कुछ बोलते हुए कल्लू के मस्तक पर प्यार से हाथ फेर देती थीं। मुझे लगता है, वे कहती होगी, मैंने तुम्हारा भोजन परोस दिया है, खा लो। 

लालच! यह क्या होता है? 

पशुओं के भोजन को स्वादिष्ट, पौष्टिक और मनमोहक बनाने के लिए उसमें जो अन्नादि मिलाए जाते हैं उन्हें ही गाँव में लालच नाम दिया गया है। इस लालच में बेझर का दलिया सबसे महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस लालच को कहीं रातब या रातिब भी कहा जाता है। वास्तव में यह पशु-आहार का एक भाग होता है। 

इस कल्लू ने मोहन के घर में कई बछिया/बछड़े जने। एकाधिक बछडे बड़े होकर बैल बनकर उसके घर में ही खेती के काम आये। एक बछिया बड़ी होकर गाय बन गयी जिसे मोहन के दद्दा ने अपनी छोटी बेटी को भेंट स्वरूप दिया था। 

कल्लू युवा थी, बूढ़ी हो गयी, वह आजीवन मोहन के घर पर रही। कल्लू के प्रति दयावती व किशुन का आदर व प्यार जस का तस रहा। कल्लू उनके लिए पशु नहीं, केवल दुधारू गाय नहीं, गौमाता थी। जिस दिन उसने देह त्यागी उस दिन मोहन के अम्मा, दद्दा ख़ूब रोये, मोहन और उसके भाई-बहिन भी दिन भर ग़मगीन रहे। शाम को उनके घर में खाना तक नहीं बना। उनकी गौमाता के चले जाने का उन्हें अपार दुःख था। दयावती मानती थीं कि वह उनके लिए ‘बरक्कत’ (बरकत=आशीर्वाद) थी। 

मोहन के अम्मा दद्दा को गाय से बड़ा लगाव था, स्नेह था। सभी कृषकों को होता है। सच, गाय तो कृषक जीवन की सदैव ही अहम अंग रही है, आज भी है। 

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