मैं बैठा हूँ न

01-08-2020

मैं बैठा हूँ न

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 161, अगस्त प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

"हेल्लो... जी, मैं डॉक्टर सुमित राय बोल रहा हूँ।"

"सर, मैं मानपुर से जगतसिंह जी का बेटा बोल रहा हूँ।… पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है। उन्हें आपके अस्पताल तक लाने की स्थिति नहीं है, आप तुरंत आने की कृपा करें। सर प्लीज़..."

"अच्छा कमल!... तुम परेशान न होओ; मैं बस आ ही रहा हूँ।"

इलाके में माफ़िया-आतंक है पर यह सब जानते हुए भी सुप्रसिद्ध चिकित्सक सुमतिराय पास के गाँव मानपुर के मरीज़ जगतसिंह को देखने चल दिए।

सवेरे का समय था। कार को सामान्य गति से कुछ अधिक तेज़ चलाते हुए डॉक्टर साहब मन ही मन सोच रहे थे कि जगतसिंह हैं तो नियम संयम वाले, उनका इलाज भी नियमित चल रहा है फिर भी उन्हें दिल का दौरा पड़ना चिंता की बात है।... उनके बेटे का संदेश आया है, एक तो चिकित्सक के नाते, दूसरी बात यह कि जगतसिंह नज़दीकी मित्र भी हैं; इसलिए उन्हें देखने जाना मेरा कर्त्तव्य है।... रही बात माफ़िया के डर की, तो वे तो नेता जी के ही आदमी हैं... और मैं भी तो व्यक्तिगत रूप से नेता जी से जुड़ा हूँ, इसलिए डर की कोई बात ही नहीं है।

डॉक्टर साहब के पहुँचने तक जगत सिंह की स्थिति काफ़ी कुछ संभल गयी थी। उनके बेटे ने बताया कि पहले आपने जो दवाएँ लिखीं थीं, वह घर पर रखीं थीं, उनसे काफ़ी आराम मिला है।

डॉक्टर साहब कुछ निश्चिंत हुए। जगत सिंह की जाँच की, दवाओं का पर्चा बनाया। कमल की तरफ़ मुख़ातिब होकर बोले, "यह दवाएँ देना... कल इन्हें अस्पताल ले आना, हृदय सम्बन्धी कुछ परीक्षण करने होंगे।"

"जी डॉक्टर साहब।" 

अन्य औपचारिकताओं के बाद डॉक्टर साहब वापस चल दिए। वह अभी पाँच मील ही गए होंगे कि सड़क पर सामने बड़ा पत्थर देखकर जैसे ही डॉक्टर साहब ने कार धीमी की, तभी चार-पाँच लोगों ने आकर कार रुकवा दी।

कार रुकते ही, एक व्यक्ति बोला, "डॉक्टर साहब नीचे उतरिये।"

स्थिति भाँप चुके डॉक्टर साहब नीचे उतर आए।

"चाबी?" वह व्यक्ति हाथ आगे बढ़ाया।

डाक्टर साहब ने कार की चाबी उसे सौंप दी।

एक व्यक्ति की तरफ़ इशारा करते हुए उसने कहा, "मेरा यह व्यक्ति अपनी मोटर साइकिल पर आपको आपके घर तक ले जाएगा। इसी को आप पाँच लाख रुपये दे देना। फिर शाम तक यही व्यक्ति यह कार आप के घर वापस पहुँचा देगा।"

"जी..." डॉक्टर साहब का कंठ सूख-सा रहा था।

"हाँ, इस काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दीजिए डॉक्टर साहब! कार के साथ ही यह काग़ज़ भी आपको वापस मिल जाएगा।"

काँपते हाथों से डॉक्टर साहब ने वाहन के स्वामित्व के हस्तांतरण सम्बन्धी फ़ॉर्म पर अपने हस्ताक्षर कर दिये।

लगभग आधा घण्टे में डॉक्टर साहब को घर पर उतारते हुए मोटर साईकिल चालक ने उन्हें 5 लाख रुपये लाने का हुक्म सुनाया।

"अभी घर पर रुपये तो नहीं हैं भाई जी," डॉक्टर साहब के अवरुद्ध कंठ से स्वर फूटे।

"तो अब कार भूल जाइए," कहकर वह व्यक्ति मोटर साइकिल मोड़कर अपने रास्ते चल दिया।

 

 + + + 

 

दिन भर दुख और चिंता में डूबे रहे डॉक्टर साहब ने शाम को नेता जी के आवास पर जाने का निश्चय किया।

शाम लगभग 7 बजे डॉक्टर साहब नेता जी के घर पहुँचे।

डॉक्टर साहब देखते हैं कि नेता जी के आवास के लॉन में महफ़िल-सी जमी है। नेता जी एक शानदार कुर्सी पर बैठे हैं; उनके सामने की कुर्सियों पर उनके शागिर्द, मिलने वाले तथा कुछ फ़रियाद लेकर आने वाले पीड़ित बैठे हैं।

पहुँचते ही डॉक्टर साहब ने नेता जी को हाथ जोड़कर अभिवादन किया।

"नमस्कार डॉक्टर साहब। आइए, इधर बैठिए इधर।"

नेता जी ने हाथ के इशारे से जिधर बताया, डॉक्टर साहब उधर ही बैठ गए।

"कहिये कैसे आना हुआ डॉक्टर साहब?"

"सर! आज सवेरे मैं एक मरीज़ को देख कर मानपुर से वापस लौट रहा था, तब पाँच मील के पास मेरी नई कार छीन ली गई।"

नेता जी अत्यंत उत्तेजित होकर बोले, "किसकी हुई इतनी हिम्मत?... किसकी है यह हिमाक़त कि हमारे ही आदमी की कार छीन ली।" फिर कुछ संयत होकर बोले, "डॉक्टर साहब,कुछ अनुमान है कौन लोग होंगे?"

आते समय ही डॉक्टर साहब ने देख लिया था कि कार छीनने वालों में जो मुखिया था, वह नेता जी की इसी महफ़िल में बैठा हुआ था। अतः डरते-डरते अपनी निगाह उधर घुमा दी।

नेता जी भड़क उठे, "ढोका...! तूने छीनी कार? दिमाग़ घूम गया है तेरा। तुझे नहीं मालूम कि हर चुनाव में डॉक्टर साहब तन, मन, धन से हमारी मदद करते हैं।... जा उठ... ले जा डॉक्टर साहब को! और अभी उनकी कार सौंप उनको।"

"जी..." ढोका उठ खड़ा हुआ।

"जाइये डॉक्टर साहब, ले लीजिए अपनी कार।... डरने की कोई बात नहीं है... मैं बैठा हूँ न।"

डॉक्टर साहब डरते डरते बोले, "सर, इन्होंने 5 लाख रुपये माँगे थे।"

"अरे डॉक्टर साहब! पैसे-कौड़ी का क्या?...दे देना।... जब यह आपको आपके घर पहुँचाये, तब इसके मुँह पर मार देना रुपये!"

अब डॉक्टर साहब का मुँह देखने लायक़ था।

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