दहेज एक: रूप अनेक
डॉ. आर.बी. भण्डारकरविवाह योग्य बेटी के लिए वर तो ढूढ़ना ही है। कार्य की व्यस्तता, छुट्टियाँ मिलने की मुश्किल; पर आज निकल ही पड़े हैं वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक इंद्रेश्वर एक मंज़िल की ओर।
गंतव्य पर पहुँचते ही लड़के के पिता बुद्धलाल बाहर ही मिल गए। इंद्रेश्वर ने अपना परिचय दिया तो उन्होंने ज़ोर से सलाम ठोका, फिर "जय हिंद सर" किया।
"अरे नहीं भाई व्यक्तिगत भेंट में सरकारी प्रोटोकॉल आवश्यक नहीं बुद्धलाल जी।"
"जी सर! आदेश?"
"नहीं भाई आदेश नहीं।... दरअसल बात यह है कि मेरी बेटी ने इसी वर्ष कम्प्यूटर से बी.ई. किया है। मेरे एक रिश्तेदार ने बताया है कि आपका बेटा एमबीबी स करके अब जूनियर रेज़िडेंट है; मैं इसी सिलसिले में आया हूँ।"
बुद्धलाल की मुखमुद्रा बदल गयी, "...जी तोss?... कहिएss?"
"तो क्या आप उपयुक्त प्रस्ताव मिलने पर अपने बालक की शादी करना चाहते हैं?"
"बिल्कुल करना चाहता हूँ।"
"लड़की मेडीकल क्षेत्र की ही चाहिए या फिर कोई भी उपयुक्त लड़की?"
"लड़की का मेडीकल लाइन का होना ज़रूरी नहीं। घर-परिवार अच्छा हो, लड़की सुंदर और संस्कारवान होनी चाहिए।"
"मुझे बताया गया है कि लड़का जेआर के बाद पीजी की पढ़ाई करना चाहता है।"
"सही सुना है; वह इसके बाद पीजी ही करेगा।"
"बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ?"
"जी कहिएs?"
"लड़का भी पढ़ाई जारी रखना चाहता है, आप भी लड़के की पढ़ाई जारी रखने के पक्ष में हैं; तो अभी उसकी शादी क्यों कर रहे हैं? पहले पढ़ाई पूरी हो जाने दें।"
"देखिए साहब! मैं सिपाही आदमी। कब तक ख़र्च उठाऊँगा। शादी करके ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहता हूँ। शादी के बाद वह (पुत्र) जाने और शादी करने वाला (लड़की का पिता) जाने कि वह पीजी कैसे करेगा।"
आश्चर्यचकित इंद्रेश्वर अब बुद्धलाल का मुँह ताक रहे थे।
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