आर. बी. भण्डारकर – डायरी 003 : भाषा
डॉ. आर.बी. भण्डारकर15 अप्रैल 2021
सवेरे के 8.30 बज गए हैं। मुझे मालूम है कि नित्य की भाँति 9 बजते-बजते ओम भैया जी प्रथम तल के अपने शयन कक्ष से नीचे बैठक में आ जायेंगे। उनके आने के बाद कुछ लिखना लगभग असंभव होता है, सो सोचा कि अभी सबसे पहले आज की डायरी लिख लेता हूँ।
वैसे तो मैं नियमित रूप से डायरी लिखता हूँ पर लंबे अंतराल के बाद वर्ष 2021 में आज पहली बार लिख रहा हूँ।
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.....डायरी लिखने को उद्यत हुआ तो कुछ समय पूर्व की स्मृतियाँ मस्तिष्क में उतर आयी हैं। सम्भवतः बीते दिसम्बर माह की बात है। मैं सोफ़े पर बैठा हूँ, सामने खेल रहे ओम भैया जी अपने आप में खोए हुए कुछ बोल रहे हैं। मैं समझने की कोशिश करता हूँ कि ये जनाब क्या बोल रहे हैं पर असमर्थ रहता हूँ; पूछना ही पड़ता है– "ओम भैया जी आप क्या बोल रहे हैं?"
"आप नहीं समझ पाएँगे नाना जी, मैं अपने अर्थ (Earth) की लेंग्वेज (Language) नहीं बोल रहा हूँ, दूसरे प्लेनेट (Planet) की लेंग्वेज (Language) बोल रहा हूँ।"
ओम भैया जी का यह कथन सुनकर मैं पहले तो दंग हुआ फिर ज़ोरों से हँसा।.... दंग केवल दूसरे प्लेनेट की बात सुनकर ही नहीं हुआ बल्कि ओम भैया जी के अटल आत्मविश्वास पर भी कि "आप नहीं समझ पाएँगे नाना जी.....।" (क्या इनकी छठी इन्द्रिय काम कर रही है भई?) ....बिटिया जी को आवाज़ दी।
बिटिया जी आई, मैंने उसे ओम भैया जी के इस अद्भुत कथन से वाकिफ़ कराया तो वह हँसी और सहज भाव से बोली– "हाँ पापा जी, यह कभी-कभी मेरे सामने भी ऐसा ही कुछ बोलता है, पूछने पर यही कहता है कि ममा आप नहीं समझ पाओगी, मैं दूसरे प्लेनेट (Planet) की लेंग्वेज (Language)बोल रहा हूँ।"
बेटी भौतिकी की परास्नातक है, उसने पीएच.डी. उपाधि के लिए कठिन शोध कार्य भी किया है और वैज्ञानिक अधिकारी भी है; सो मेरे मुँह से "दूसरे प्लेनेट" की बात सुनकर वह सचेत हो गयी। .....उसे मालूम है कि पापाजी का सोचने का ढंग किंचित परम्परावादी भी है, सो थोड़ा रुककर स्पष्ट करती है– "ऐसा कुछ नहीं है पापा जी... यह (ओम) टीवी पर और मोबाइल फोन पर तरह-तरह के कार्टून्स और वीडियोज़ देखता रहता है, भले ही वे हिंदी, अंग्रेज़ी के अलावा किसी भी भाषा में आ रहे हों। तो उन्हीं से सीख कर कुछ बोलता रहता है।"
मैं हँसने लगा।
बेटी अपने कमरे में वापस चली गयी। इस बीच ओम भैया जी अपने किसी काम में लगे रहे; सो हम लोगों की चर्चा में अपना कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं कर सके।
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ओम भैया जी का यह वाक़या याद आने से मुझे बिटिया जी की एक बात याद आई। उस समय हम लोग मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के बिलासपुर जिले में थे। हम लोग (मैं, पत्नी, मेरा 13,14 वर्षीय बेटा और बिटिया जी) घर पर खड़ी बोली बोलते थे। उस समय यह बिटिया जी 5, 6 बरस की रही होंगी। सरकारी स्कूल में पढ़ती थीं। ....पढ़ना, लिखना क्या; अध्यापक लोग अक़्सर आपस में गप्पें लड़ाते रहते थे और बच्चे (विद्यार्थी) गुट्टे खेलते या ऊधम मचाते रहते थे, स्वाभाविक रूप से बिटिया जी भी इन्हीं के साथ खेल में मस्त रहतीं।... कुछ दिनों में हम लोगों ने पाया कि बिटिया जी खड़ी बोली भूल गईं, वहाँ की स्थानीय बोली बोलने लगी हैं। एक दिन उनकी माँ ने, मेरे और बेटे के सामने ही बिटिया जी से पूछ लिया– "बिटिया जी, ये कौन सी बोली बोलती हो?"
तपाक से उत्तर मिला– "लरिया।"
हम सब लोग ख़ूब हँसे।
बाद में जब हम लोग भोपाल आ गए और बिटिया जी कुछ बड़ी हो गईं तो उनका बड़ा भाई बिटिया जी को चिढ़ाने के फेर में खड़ी बोली में कुछ बोलता और कहता– "बिटिया जी, इसे लरिया में बोल कर बताओ।"
बिटिया जी चिढ़ जातीं और अपनी माँ से भाई की शिकायत करतीं।
यह सिलसिला बहुत दिनों चला।
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आगे बढ़ने से पहले यह जान लें कि हमारी खड़ी बोली और बिटिया जी द्वारा सीखी गयी लरिया क्या है? हम सब जिस माध्यम से अपने भाव प्रकट करते हैं उसे भाषा कहा जाता है। भाषाएँ अनेक हैं। हमारे देश की राष्ट्र भाषा और राजभाषा हिंदी है। सामान्य तौर पर हमारे देश के पश्चिम में सम्पूर्ण राजस्थान, उत्तर पश्चिम में अंबाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल की तराई, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण पूर्व में रायपुर, बिलासपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खरगौन, खंडवा तक फैले हुए भूभाग में बोली जाने वाली भाषा को हिंदी कहा जाता है। हिंदी में अनेक उपभाषएँ, विभाषाएँ और बोलियाँ हैं। इस दृष्टि से भाषा शास्त्रियों के मतानुसार हिंदी के मुख्य भेद दो हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी।
पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से माना गया है। इसमें खड़ी बोली, बांगरू, ब्रज, कन्नौजी और बुंदेली कुल पाँच बोलियाँ (यहाँ बोलियों का आशय विभाषाओं से है) हैं।
पूर्वी हिन्दी का विकास अपभ्रंश के शौरसेनी, मागधी और अर्धमागधी रूपों से हुआ है। इसमें अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी कुल तीन बोलियाँ (विभाषाएँ) शामिल की जाती हैं। अवधी के दो भेद हैं - पूर्वी अवधी और पश्चिमी अवधी।
विद्वानों के अनुसार पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी के अलावा हिंदी की तीन उपभाषाएँ और हैं– बिहारी, राजस्थानी (डिंगल) और पहाड़ी। बिहारी की तीन शाखाएँ हैं– भोजपुरी, मगही और मैथिली। इसी प्रकार राजस्थानी की चार मुख्य बोलियाँ हैं– मेवाती, मालवी (भीली सहित) जयपुरी और मारवाड़ी। पहाड़ी वैसे तो राजस्थानी से मिलती-जुलती है; पर भाषाशास्त्री इसका पृथक अस्तित्व स्वीकारते हैं। इसके दो भेद मुख्य हैं– कुमाउँनी और गढ़वाली। भाषा शास्त्रियों ने इन्हें विभाषाएँ कहा है। अस्तु प्रायः सभी की कई-कई बोलियाँ (Dialects) हैं। "लरिया" छत्तीसगढ़ी की एक बोली है जो बिटिया जी ने अनुकरण से अनायास सीख ली। छत्तीसगढ़ी की यह बोली महासमुंद, सराईपाली, बिलासपुर, कोरबा के आस-पास बोली जाती है। यह जो विभाषाएँ हैं, इनमें से कई स्वतंत्र रूप से भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हैं– मैथिली,भोजपुरी, ब्रज,अवधी आदि।
खड़ी बोली जिसे ही हिन्दी कहा गया है अपने मूल रूप में मेरठ, रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, बागपत के आसपास बोली जाती है।....हमारी बोली तो भिंडी है पर हम लोग जो खड़ी बोली बोलते हैं उसमें भी रहवास की स्थानीयता के कारण बुंदेली, ब्रज, ग्वालियरी, भिंडी के शब्द मिश्रित रहते हैं।
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भाषा का अधिगम बड़ा अनोखा है।...हम बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में रहे, वहाँ की भाषा/बोली हमें (बड़ों को) सीखनी चाहिए थी ,ख़ासकर मुझे ताकि स्थानीय लोगों से प्रभावी संवाद हो सके; मैंने स्थानीय बोली सीखी अवश्य पर हिंदी का अध्येता होने के कारण; पर खड़ी बोली की आदत के फलस्वरूप संवाद का कार्य तो हिंदी, लरिया के मिश्रित रूप से ही चला। बिटिया जी ने सहज भाव से लरिया सीख ली, उनकी संवाद की भाषा भी वही बन गयी।
हमने पढ़ा था, भाषा जन्मजात नहीं होती है, पैतृक सम्पत्ति की तरह नहीं होती है। यह अर्जित की जाती है, सीखी जाती है। यह अर्जन मुख्य रूप से अनुकरण से होता है। भाषा व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं सामाजिक संपत्ति होती है। भाषा निरन्तर परिवर्तन शील होती है।....बिटिया जी ने सहपाठियों के संग से, तो ओम भैया जी ने कार्टूनों से, वीडियोज़ से दूसरे प्लेनेट की भाषा (कृत्रिम ही सही) सीख ली। पहले यह समझने के लिए कि भाषा सीखी जाती है, हम किताबों में उदाहरण/दृष्टान्त पढ़ते थे, अब प्रत्यक्ष देख लिया।
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प्रकृति का खेल कितना निराला है.....कल (past)
हमारे लिए बेटी, बेटे खिलौने जैसे थे। हम उन्हें, वे हमें हँसाते थे, चिढ़ाते थे। हम उन्हें सिखाते थे, पढ़ाते थे। आज उन्होंने हमारा स्थान ले लिया है, उनके स्थान पर नई पीढ़ी आ गयी है। यही प्रकृति की निरंतरता है।
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ओम भैया जी की आवाज़ सुनाई देती है, वे सीढ़ियों से उतर रहे हैं। मैं घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ; 9.30 बज रहे हैं।
ओम भैया जी आते ही मेरा चश्मा उतारते हुए कहा– "नाना जी ,पढ़ाई बंद। चलो मेरे साथ हाकी खेलो।...हाकी खेलने में मैं बहुत माहिर हूँ; आपको हरा दूँगा और मैं विनर (winner) बन जाऊँगा।" वे मुझे खींचते हैं।
"भैया वन मिनट... वन मिनट।"
भैया जी के किंचित रुकते ही मैं अपनी आज की डायरी में उनकी एक्टिंग और उनका कथन लिपिबद्ध कर लेता हूँ।
अब तो हाकी खेलने जाना ही पड़ेगा।....सामने ओम भैया जी हैं... फिर उनकी चुनौती भी तो है– "मैं आपको हरा दूँगा।"
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