सुमतिराय की कविता
डॉ. आर.बी. भण्डारकरसुमतिराय के मन में काफ़ी दिनों से जो ऊहापोह चल रहा था, वह आज एक निश्चय में बदल गया।
दरअसल सुमतिराय को कविताएँ लिखने का शौक़ है।उनकी कवितायें अनेक स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में जब तब छप भी जाती हैं।
उनके विचार में कविता आंतरिक भावों का उद्रेक होती है। उनका मानना है कि हम बहुत कुछ देखते, सुनते हैं, उनसे प्रभावित होते हैं, इन्हीं का प्रतिफल जो भावोद्रेक होता है और वह जब जनपक्षीय होकर प्रस्तुत होता है, वही कविता है।
सुमतिराय जनपक्षीय विचारधारा के तो हैं ही सो अपने अभिव्यक्त भावों को ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर लेते हैं वही उनकी कविता हो जाती है।
कल उन्होंने जो कविता लिखी थी उसे आज फिर पढ़ा, पहले वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ सुधारीं, फिर विराम चिह्नों को गति और लय के अनुसार व्यवस्थित किया, आज कुछ प्रतीक भी बदले, कुछ कमज़ोर लग रहे पदों को भी बदला। अब वे संतुष्ट लग रहे थे।
किसी बड़ी पत्रिका में छपने की चाह थी सो चले जा रहे थे अपने आज के निश्चय के अनुसार नगर के तथाकथित स्थापित कवि महोदय जो स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर भी हैं, के घर की ओर। पहुँचे तो वे कविवर बाहर ही मिल गए। दुआ-सलाम हुई। सुमतिराय ने अपनी ताज़ा-तरीन कविता दिखाने का ज़िक्र किया तो दोनों बैठक में पहुँचे।
कविवर सुमतिराय की कविता रहे थे। सुमतिराय उनके चेहरे के बनते-बिगड़ते भावों को सूक्ष्मता पूर्वक निहार रहे थे।
कविता समाप्त ही। उन कविवर की नाक ऊपर को सिकुड़ी, फिर होंठ आगे की ओर हुए फिर कुछ चौड़े हो गए।
"उफ्फ ! सुमति जी आपकी कविता काफ़ी कमज़ोर है और मैं सच कहूँ तो यह कि कविता का कोई तत्त्व इसमें दृष्टिगोचर ही नहीं है। थोड़ी मेहनत करिए। आप लिख तो सकते हैं, आप में संभावनाएँ हैं।"
इसके बाद सुमतिराय कभी यह कविता, कभी वह कविता लेकर उन कविवर के पास अनेक बार गए पर कविवर को उनकी कोई कविता जँची नहीं।
एक सप्ताह बीत गया। किसी विशेष कारण से कुछ परेशान से सुमतिराय आज फिर जाना चाहते थे कविवर के घर। काग़ज़ पर कविता उतारी चल पड़े कविवर के घर की ओर।
पहुँचे तो कविवर की पत्नी ने दरवाज़ा खोला। वे बैठक में बैठ गए।
"साहब पूजा कर रहे हैं, बस उठने ही वाले हैं।"
सुमतिराय चौंके। घोर मार्क्सवादी हमारे ये कविवर और पूजा!... उन्होंने अपना सिर झटका.... ख़ैर भावनाएँ अपनी अपनी....।
कुछ ही क्षण बाद कविवर उपस्थित होते हैं। नमस्कार का देन-लेन, अब कविता देखने की बारी।
कविवर मन ही मन कविता पढ़ते गए। हर बार की भाँति उनकी भाव-मुद्राएँ बनती-बिगड़ती रहीं। अंत में बोले, "भाई सुमतिराय जी आपकी यह कविता तो बिल्कुल ही बेकार है। आपकी पिछली दो-तीन कविताएँ पढ़कर मुझे लगने लगा था कि आप में काफ़ी सुधार हो रहा है और आप धीरे-धीरे अच्छा लिखने लगेंगे लेकिन आज तो आप एकदम बेकार कविता लिख लाये।"
"लेकिन...लेकिन सर, यह मेरी कविता नहीं है। यह तो अमुक कवि की कविता है जो इस वर्ष एम.ए. प्रथम वर्ष के 'आधुनिक काव्य' प्रश्न पत्र के पाठ्यक्रम में है।... दरअसल सर,एम ए की शिक्षा न होने के कारण मुझे अपने विभाग में अगली पदोन्नति नहीं मिल पा रही है।इसलिए मैंने इस वर्ष स्वाध्यायी छात्र के रूप में हिंदी साहित्य में एम ए प्रथम वर्ष का फॉर्म भरा है।इसलिए मैं तो अपने पाठ्यक्रम की इस कविता की उचित व्याख्या समझने के लिए आपके पास आया था।अपनी कविता दिखाने नहीं।"
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