सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे

01-04-2020

सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 153, अप्रैल प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

सुमित के ठीक सामने वाली गली के दाएँ तरफ़ वाली लेन के दूसरे क्रम के घर में रहती है वह। उमर यही कोई 21, 22 वर्ष; लम्बी, छरहरी; रंग गोरा, तीक्ष्ण नैन नक्श, वाणी मधुर, स्वभाव सरल तिस पर मिलनसारिता का अद्भुत गुण भी। कहा जाता है कि सुंदरता तो देखने वाले की नज़र में होती है पर धापू का सर्वांग सौंदर्य ऐसा कि हर किसी को आकर्षित करता है। 

सुमित प्रतिदिन सुबह अपने किराए वाले आवास के बाहर बरामदे में बैठकर ही अख़बार पढ़ता। उसका तीन वर्षीय पुत्र उसकी कुर्सी के पास बिछी चटाई पर खेलता या चित्रों वाली अपनी किताब उलटता-पलटता रहता। धापू भी प्रतिदिन सवेरे सवेरे सुमित के बगल वाले मकान में आती है। यहाँ उसके, उसके तो क्या, सही तो यह कि उसके ससुर के पशु बँधते हैं। सुमित समझ पाया है कि इस पशुशाला से गोबर उठाने, उसे झाड़ने-बुहारने का काम धापू के ही ज़िम्मे है। 

आते समय अपनी पशुशाला में प्रवेश करने से पहले थोड़ा ठिठक कर धापू सुमित के बेटे से अवश्य बतियाती, बच्चों की तरह अपनी बोली तोतली करके; "भैया थेल लहा है, ..ये तिलिया तो मेली है भैया आदि आदि।" वह गोबर डालने, झाड़ने-बुहारने का काम प्रायः एक घण्टे में निपटा लेती है। इतना वक़्त लगने की वज़ह यह कि उसे गोबर डालने के लिए किंचित दूर जाना पड़ता है। इधर सुमित उठने को होता, उधर उसका भी काम समाप्त होता। वह जाते-जाते अपने दाएँ हाथ की पाँचों उँगलियों की चुटकी-सी बनाकर सुमित के बेटे के दाएँ गाल पर रखती, फिर उन्हें अपने होंठों से छुआ कर पुच्ची लेती। यह प्रायः रोज का ही सिलसिला हो गया है। 

जिस घर में धापू रहती है सुमित को अक्सर उस घर में से दो महिलाएँ और निकलते, आते-जाते दिखतीं हैं। उनके पहनाव-उढ़ाव, हाव-भाव, चाल-ढाल, उनकी परस्पर बातचीत से सुमित को निश्चय हुआ कि ढलती उम्र की महिला सास है और नवयौवना उन सास जी की पुत्रवधू। धापू जी क्या हैं? उस घर की बेटी या बहू? वह काफ़ी दिनों तक यह नहीं जान सका। 

सुमित की धापू से कभी बात तो नहीं हुई पर दोनों की सुबह की दिनचर्या ही ऐसी है कि प्रतिदिन सुबह नियमित रूप से दिख ही जाती है धापू उसे। कभी-कभी ड्यूटी पर जाते वक़्त भी धापू दिख जाती है। सुमित सोचता है धापू युवा है, ख़ूबसूरत है, शालीन भी है फिर भी यह उपेक्षित सी क्यों है? न अच्छा पहनावा, न महत्त्वपूर्ण कार्यों में सहभागिता, न चेहरे पर कोई घरेलू महत्ता की उत्सुकता का भाव। आख़िर क्यों? बड़ी जिज्ञासा होने लगी है सुमित को उसके बारे में सब कुछ जानने की। किससे पता करे, कैसे पता करे? यही सोचते सोचते महीने दर महीने निकलते जाते हैं। पर स्थिति जस की तस है। 

+  +  +  +  +  +  +  +  +   +

हम सभी बाज़ार जाते हैं, गेंहू, चावल, दालें और तरह-तरह की खाद्यान्न सामग्रियाँ और अन्य प्रकार की जीवनोपयोगी सामान ख़रीद लाते हैं। जीवन की आपाधापी कहें या व्यक्ति की उदासीनता; हम शायद बहुत कम सोचते हैं कि बाज़ार में यह सामग्रियाँ या इनका कच्चा माल कितनी कठिनाई से पैदा होता है। सुमित ने तो प्रत्यक्ष देखा है इनके उत्पादन के लिए जी-तोड़ मेहनत करते किसानों को; अपने अंचल से भी अधिक मालवा के पश्चिमी छोर पर स्थित इस ज़िले में। यहाँ तो एक दो जातीय-समुदायों को ही "किसान" कहा जाता है। सुमित को पहले भ्रम था कि सरकारी नौकरी करते हुए वह और उस जैसे लोग ही "समयबद्धता" से बँधे हुए हैं पर इन किसानों की "समयबद्धता" देखकर तो नतमस्तक हो जाता है वह। जब कार्यों की अनिवार्यता होती है, अधिकता होती है यानी बुआई, सिंचाई और फ़सल कटाई का समय, तब कोई समय सीमा ही नहीं रहती है इनके लिए। रात हो या दिन, ठण्ड हो या गर्मी, धूप हो या बारिश; बस सबसे पहले खेत-खलिहानों का काम। यही है हमारा किसान, हमारा अन्नदाता। 

पुरुष सवेरे उठकर चले जाते हैं खेतों पर अपने बैल और कृषि उपकरण लेकर। महिलाएँ पहले घर का काम निपटाती हैं फिर कलेवा तैयार कर, उसे अनुकूल वासनों में सँजोकर पहुँचती हैं खेतों पर। फिर जुट जाती हैं खेतों में काम करने, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर। 

अब घर लौटना तो शाम को ही हो सकेगा। 

फ़सल आ गयी है तो अड़ोस-पड़ोस में रहने वाले इन अभ्यागतों का भी हक़ है इन पर। मूँगफलियाँ आ गयी हैं, मटर की फलियाँ आने लगी हैं, गन्ने भी चूसने लायक़ हो गए हैं या बूँट, होले आये हैं; किसान कहता ही कहता है- नाना! ये इतने दे आओ पटवारी जी के घर, गुरुजी के घर, वो बिजली विभाग वाले साहब के घर, ग्राम सेवक जी के और.. और..वो..सबके यहाँ दे आओ बेटा थोड़े-थोड़े। कठोपनिषद-भाव यहाँ साकार रहता है हरदम -"सहनौ भुनुक्तु।"

+  +  +  +   +   +   +   +   +   +

"दूध, दही की नदियाँ बहना" मुहावरा सुना था, पढ़ा भी था सुमित ने। अपने इस स्वर्ग में उसने इसे साक्षात भी देखा। प्रायः हर घर में दूध, दही, घी, मट्ठा, आमतौर पर भैंस का, पर किसी किसी के यहाँ गाय का दूध भी पर्याप्त। सुमित ने इस गाँव में पदस्थापना के बाद जो मकान किराए पर लिया, उन्हीं मकान मालिक बा साहब के यहाँ से दूध मिलने लगा था उसे। इसका भी रोचक क़िस्सा है। 

हुआ यों कि सुमित दूध तलाश रहा था कि किसी ने कह दिया- आपके मकान मालिक के यहाँ तो बहुत दूध होता है, उन्हीं के यहाँ से लेने लगो। पहुँच गया शाम को मकान मालिक बा साहब के पास सुमित। कह दी अपनी बात। 

बा साहब हाथ जोड़ते हैं- "ना साहब। हम दूध नहीं बेचते हैं।"

"क्यों?"

"दूध बैचों, पूत बैचों।"

सुमित निरुत्तर। 

इसी बीच वहाँ सुमित के पहले से ही पदस्थ उसके एक प्रौढ़ सहकर्मी संयोग से आ पहुँचे। 

"यहाँ प्रायः सभी ने इन पुरानी मान्यताओं को छोड़ दिया है पर ये बा साहब अभी भी उस पर क़ायम हैं। हम कई लोगों ने भी इनके यहाँ से दूध लेने का प्रयास किया पर यह मानते ही नहीं हैं," 
आते ही वे सुमित से कहने लगे। 

फिर तुरुप कैसा पत्ता फेंकते हुए बा साहब से बोले- "बा साहब चंपू की उमर कितनी है?"

"45 साल होगी।"

"उसकी लाड़ी की?"

"क़रीबन 42 साल।"

"और नन्दू की?"

"40"

"उसकी लाड़ी की?"

"35 तो होगी ही।"

सुमित झुँझला उठा था मन ही मन अपने साथी के इन बे सिर पैर के प्रश्नों से। उसी बीच उन साथी जी का एक और प्रश्न उसके कानों में घुसा। 

"बा साहब! इन साहब की उमर कितनी होगी?" इशारा सुमित की ओर था।

"27, 28 के लागै हैं।"

"सही अंदाज़ लगाया बा साहब। ....और आपको मालूम है? इनकी लाड़ी तो 22, 23 की ही हैं; जब आएँ तब ख़ुद देख लेना।"

अब सुमित का सिर भन्नाने लगा। ...ओफ्फ क्या मतलब है इन बेतुकी बातों का। 

वह टोकने ही वाला था कि भई, बस करो पुरोहित जी; कि पुरोहित जी ने एक प्रश्न और उछाल दिया। 

"बा! अपने बेटे, बहुओं मानें चंपू, नन्दू और लाड़ियों को दूध देबौ के ना?"

"देबों देबों।"

"तो इन्हें भी देना पड़ेगा 500 ग्राम दूध रोज़ सवेरे। समझे बा साहब?" इतना कह कर वे हँसने लगे।

उस क़स्बे में वर्षों से रह रहे पुरोहित जी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। सुमित ने देखा बा साहब हाथ जोड़े खड़े हैं। 

पुरोहित जी सुमित का हाथ खींचते हुए बोले, "चलो सुमति जी कल सवेरे से आपके यहाँ आधा किलो दूध रोज़ पहुँचने लगेगा।"

इस प्रकार दूध की बँधी हुई थी सुमित के यहाँ। 

+  +  +   +  +  +   +   +    +

कुछ काल बाद जब सुमित अपनी पत्नी को साथ लाया तो बेटे के लिए दूध की आवश्यकता पड़ी। उसकी पत्नी का आग्रह था कि श्यामा गौ का दूध मिल जाये तो ठीक रहे। 

सुमित देखता रहा है कि बगल वाले घर से ग्वाला जो गायें चराने के लिए ले जाता है उनमें एक श्यामा गौ भी है। देखने से लगता है कि वह गाय दूध भी दे रही होगी। सो एक सबेरे धापू के निकल जाने के बाद उसके ससुर ने जैसे ही उस घर में घुसने के लिए क़दम बढ़ाए कि सुमित ने उन्हें रोक लिया। वह अपने घर के अंदर से एक कुर्सी लाया, उसे अपने बरामदे में डाला और बा साहब को बड़े आदर के साथ उस पर बैठाया। समझा जा सकता है कि उस समय सुमित के अंदर "स्वारथ लाग करहिं सब प्रीती" भावना ही सक्रिय हो रही होगी। 

सुमित ने उन बा साहब को बेटे के लिए दूध की आवश्यकता बताई। उन बा साहब ने तुरंत ही कहा कि उनकी तीन चार गायें दूध दे रही हैं, श्यामा गौ भी दूध दे रही है। आप श्यामा का दूध चाहते हैं तो मैं आज से ही आपको श्यामा का आधा किलो दूध देने लगूँगा। बन गया काम। सुमित निश्चिंत हुआ। 

यह बा साहब बड़े सहृदय; प्रतिदिन निखालिस दूध तो देते ही, नाप से कुछ अधिक ही दूध दे देते हैं सुमित की पत्नी को। 

परिचय प्रगाढ़ होने लगा। आप जान ही गए होंगे कि सुमित को इस प्रकार धापू के बारे में जानने का छोर भी मिल गया। 

एक दिन दूध देने उसके घर आये बा साहब जब दूध नाप चुके तो बरामदे में बैठे सुमित ने पूछ ही लिया- "बा यह धापू आपकी कौन है?"

"साब! मेरी लाड़ी है। बड़े बेटे की लाड़ी।"

"फिर यह उदास-सी, अलग-थलग सी क्यों रहती है?"

"गांडी है साब।"

...क्षण भर के लिए एक मौन पसरता है।

बा साहब तो चले गए अपनी बात कह कर। पर सुमित गहरी सोच में डूब गया। 

सुमित जानता है कि उस क्षेत्र में आम तौर पर गांडी शब्द को स्त्रीलिंग और 'ड' अक्षर की 'ई' मात्रा को 'आ' में परिवर्तित कर पुल्लिंग रूप में प्रयोग किया जाता है पर दोनों का अर्थ "पागल" या "कम बुद्धि वाला" के अर्थ में लिया जाता है। अक्सर इसे किसी की उपेक्षा करने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ऐसी स्थिति में वह सोचता रहा कि बा साहब ने इसे "गांडी" क्यों कहा? मुझे तो उसमें पागल या मूर्ख या कम बुद्धि जैसे कोई लक्षण दिखे नहीं। फिर आख़िर क्या कारण है? अगर उपेक्षा के अर्थ में कहा है, तो आख़िर उपेक्षा क्यों?

बड़ी उत्कट अभिलाषा होने लगी उसे सत्य जान लेने की, पर न उन बा साहब से पूछने की हिम्मत हुई और न किसी अन्य से। यही संकोच बना रहा कि लोग सोचेंगे इन्हें क्या पड़ी है, जो दाल-भात में मूसलचन्द बन रहे हैं। उसे यह भी लगा कि लोग यह सोचने पर भी आ सकते हैं कि अरे भाई इनके तो साथ इनकी पत्नी है तो भी क्यों लट्टू हो रहे हैं धापू पर ये? बहुत सारी शंकाएँ, बहुत सारी चिंताएँ। 

हाँ, सुमित के मानस में एक बात अवश्य स्पष्ट हो गयी कि परिवार की ओर से धापू की उपेक्षा और धापू में व्याप्त उदासीन भाव का कारण सबके द्वारा उसको गांडी माना जाना ही है। 

समय बड़ा ही गतिशील होता है। वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, तेज़ी से आगे बढ़ जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जो आज है वह कल नहीं होगा। 

एक दो वर्ष के बाद की बात है। सुमित एक सप्ताह के अवकाश पर अपने गृह नगर गए थे, फिर जब अपने कर्तव्य पर वापस लौटे तो उन्हें अपने आस-पास बहुत कुछ बदला-बदला लगा। 

कई दिन बीत गए उन्हें धापू के दर्शन नहीं हुए। इधर धापू के आवासीय घर से निकलते हुए दो के स्थान पर तीन महिलाएँ दिखने लगीं; दो तो पहले वाली जानी-पहचानी, जबकि एक नई-नवेली। 

सुमित की धापू के बारे में जानने की जिज्ञासा और भी बलवती हो उठी; कहाँ गई, क्या हुआ उसको। बा साहब के घर में दिखने वाली यह नई-नवेली महिला कौन है? पर पूर्व की भाँति संकोच आड़े आता रहा सुमित की जिज्ञासा के समाधान में। 

यह बात मनोवैज्ञानिक है कि अपवाद छोड़कर प्रायः हर व्यक्ति अपने सुख-दुख को, अपने साथ घटित परिवर्तनों को अपने परिचितों, सम्बन्धियों को बताने के लिए अवश्य ही लालायित रहता है। सो जैसी उत्सुकता सुमित में थी ठीक वैसी ही उत्सुकता गाय का दूध देने वाले बा साहब में भी कुलबुला रही थी। 

एक दिन जब सुमित बरामदे में अकेले बैठे थे तब दूध देने के बाद वह बा साहब सुमित के सामने वाली कुर्सी पर बड़े इत्मीनान से बैठ गए। अब समस्या आ खड़ी हुई कि पहल कौन शुरू करे। सुमित सोच रहे थे कि बा साहब बोलें कि हमेशा व्यस्त रहने वाले वह आज यहाँ क्यों आ बैठे हैं? तो बा साहब सोच रहे थे कि सुमित कुछ जिज्ञासा करें तो वह बात शुरू करें। 
सुमित के सब्र का बाँध टूटा तो उसने पूछ ही लिया-

"कैसे हो बा साहब, सब कुशल मंगल तो है न?"

"सब ठीक है, साब।"

"धापू नहीं दिख रही है आजकल?"

"उसकी तो छुट्टी कर दी साब। सब कुछ दोनों पक्षों की सहमति से हुआ है। अब हम अपने लड़के के लिए नातरा (दूसरा विवाह) करा लाये हैं। नई लाड़ी अच्छी है।"

इतना सुनते ही सुमित भड़क गए। यह जानते हुए भी कि यह उनकी अनधिकार चेष्टा है फिर भी क्रोधित होकर बोले- "और धापू में क्या ख़राबी थी। इतनी सीधी-सादी लड़की को आप जबरन "गांडी" बनाये हुए थे।"

"नईं साब वह सचमुच "गांडी" है। .....आपको कैसे बताएँ?"

सुमित और भी क्रोधित होकर- "क्या "गांडी" है, बताओ ? वह कितनी अच्छी सफ़ाई करती थी, मेरे बेटे से कितने प्यार-पूर्वक बातें करती थी। घर के काम-काज कराये ही नहीं आप लोगों ने उससे, मुझे विश्वास है कि यदि आप लोग मौक़ा देते तो वह हर काम अच्छे से कर सकती थी।"

"साब, कैसे बताएँ आपको। काम ही तो सब कुछ नहीं होता है। वह तो "गांडी" है, ऐसी "गांडी" किस काम की?"

"मतलब ?"

"कैसे बताएँ आपको.......ऊं ऊं..कैसे बताएँ.....," फिर फुसफुसा कर बोले, "ऐसे समझ लो उसके टट्टी, पेशाब का कोई अता-पता ही नहीं है।"

सुमित अब समझे। 

मन ही मन सोचने लगे, "ओह! तो धापू थर्ड जेंडर (महिला किन्नर) की-सी स्थिति वाली है। "गांडी" का एक अर्थ यह भी है यहाँ , यह पहली बार जाना सुमित ने। अपनी भावनाओं पर क़ाबू करते हुए बोले,"अब कहाँ है, वह?"

"अपने बई जी के घर। साब !अब उसकी ज़िंदगी वहीं कटना ठीक है। ऐसी महिला को कोई 'नातरा' भी तो नहीं लेगा।"

सुमित को आश्चर्य इस बात का है कि बा साहब ने कितनी आसानी से यह बातें कह दी हैं; उन्हें धापू की मानसिक पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं है। 

सुमित सोचता रहा कि शारीरिक विकृति तो किसी में भी हो सकती है। किसी अंतिम निर्णय पर पहुँचने से पहले इन विकृतियों के इलाज की संभावनाएँ क्यों नहीं तलाशी जाती हैं? लगता है कि इसके लिए स्त्रियों के प्रति समाज की दोयम दर्जे की सोच ज़िम्मेदार है। विवाह हो जाने की स्थिति में ससुराल पक्ष को यह विकल्प ही अच्छा लगता है कि हम ज़हमत क्यों उठाएँ इसे छोड़कर दूसरी शादी कर लेंगे। बात आती है जन्मदाता माता-पिता की; वे इलाज की संभावना क्यों नहीं तलाशते? वे ऐसी बालिकाओं के भावी हश्र की चिंता किये बिना इनकी शादी क्यों कर देते हैं। क्या उन्हें लगता है कि ऐसी स्थितियाँ छिपी रहेंगी और वे समाज के तानों से बचे रहेंग? सुमित को लगता है कि कभी-कभी ऐसी विकृतियाँ इतनी कम होती हैं कि ऐसे माता-पिता को लगता है कि विवाहोपरांत यह सब स्वयमेव ठीक हो जायेंगी। लेकिन ऐसा "संभावना" वाली सोच क्यों; किसी योग्य चिकित्सक से जाँच करा लेने में क्या हर्ज?सुमित के ध्यान में आया कि इसके लिए अशिक्षा भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। 

अब सुमित की दशा यह हो गयी कि वह ऐसी स्त्रियों की दुर्दशा, इस दुर्दशा के कारणों, उसके परिणामों की चर्चा मित्रों से करते, जहाँ-तहाँ अपने व्याख्यानों में यह मुद्दा उठाते और हर जगह उदाहरण धापू का ही देते। उन्हें लगता है कि धापू के साथ जो किया गया है वह घोर अन्याय है। उसका मेडीकल चेक-अप कराया जाना चाहिए था और कोई संभावना दिखती तो उसकी चिकित्सा कराई जानी चाहिए थी। 

  +  +  +  +  +  +  +  +  +  +

मज़बूत स्मरण शक्ति मनुष्य के लिए परमात्मा की अनमोल देन है। लेकिन यह भी सत्य है कि "विस्मरण" भी कम चमत्कारी नहीं होता। यदि हम दुखद घटनाएँ, खटकने वाले प्रसंग, शत्रुता-भाव भूलेंगे नहीं तो जीवन नरक बन जायेगा। इसलिए हर कोई "सुखद" को स्मरण रखना चाहता है तो "दुखद" को भूलना। कुछ बातें, घटनाएँ क्षणिक होती हैं, तात्कालिक होती हैं, देशकालिक (स्थान विशेष से सम्बंधित) होती हैं जिन्हें व्यक्ति स्थितियाँ बदलते ही अनायास भूल जाता है। इसे यह कहना अधिक ठीक रहेगा कि यह सब अचेतन में चला जाता है जो किन्हीं विशेष परिस्थितियों में पुनः चेतन में भी आ सकता / आ जाता है। 
  
लम्बा समय बीत गया है। सुमित 58 वर्ष के हो गए, पिछले साल ही उनकी पदोन्नति हुई थी, स्थानांतरण भी हो गया। अब वे प्रदेश के दूसरे ज़िले के एक बड़े कस्बे में पदस्थ हैं। उनका काम सीधे तौर पर नागरिकों से जुड़ा है, दिन भर मिलने वालों का तांता लगा रहता हैं सो वे व्यस्त भी बहुत रहते हैं। बच्चों की पढ़ाई, उनके भविष्य की चिंता भी रहती है। काम का बोझ, उत्तरदायित्वों की चिंता और उम्र के प्रभाव ने भी असर डाला है सो बीती-बातों के स्मरण की फुर्सत भी नहीं है, उन्हें। 

आज सवेरे सवेरे उन्हें अपने विभाग से एक संदेश प्राप्त हुआ कि सराहनीय जनसेवी कार्यों के लिए शासन ने आगामी गणतंत्र दिवस पर उन्हें पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। बहुत ख़ुश थे सुमित जी आज। वे स्थानीय विश्राम-गृह (सर्किट हाउस) में यूरिया की कमी से परेशान कृषकों की परेशानियों का समाधान कर रहे थे। 

दस-बारह वर्ष के एक बालक ने आकर उनके पैर छूए। उन्हें आश्चर्य हुआ, इस बालक का यहाँ क्या काम, इसका यूरिया खाद से क्या लेना-देना? लोग भी ग़ज़ब हैं, बच्चे की एक दिन की पढ़ाई का नुक़सान कर उसे यूरिया की समस्या बताने के लिए भेज देते हैं। फिर मन को संयत कर बालक से पूछा, "कहाँ से आये हो बेटा। बोलो क्या काम है तुम्हें?"

"कोई काम नहीं है अंकल; मैं तो स्कूल से लौट रहा था। यहाँ सर्किट हाउस के बाहर मेरी माँ मिल गईं, उन्होंने कहा कि मैं अंदर जाकर आपके पाँव छू आऊँ, सो मैं पैर छूने आ गया, बस। ......अब जाऊँ?"

सुमित आश्चर्य में पड़ गए। यद्यपि वे जानते हैं कि कुछ ग्रामीण जन अक्सर अपने बच्चों से बड़ों के, अधिकारियों के पाँव छुवा देते हैं; कुछ का भाव सचमुच आशीर्वाद लेना होता है जबकि कुछ इस प्रकार सहानुभुति अर्जित कर अपना काम निकलवाने का प्रयत्न भी करते हैं। लेकिन यहाँ तो पाँव छूने के लिए भेजने वाली माँ सामने ही नहीं थी। 

सुमित किंकर्त्तव्यविमूढ़-से होकर बालक से पूछा, "कौन है तुम्हारी माँ, कहाँ है, किस काम से आई है यहाँ?"

बालक बड़े इत्मीनान से कहा, "मेरी माँ का नाम धापू है। वे बाहर खड़ी हैं। किस काम से आई हैं यह तो मुझे पता नहीं।"

"अच्छा उन्हें बुलाओ अंदर।"

कुछ ही समय में एक अधेड़-वय महिला सामने उपस्थित हो गई। वह बालक भी उसके साथ था। 

"क्या समस्या है आपकी?"सुमित ने पूछा। 

"कुछ नहीं। मुझे पता चला था कि आप इसी क़स्बे में आ गये हैं सो बहुत दिनों से आपसे मिलने की सोच रही थी। लेकिन मेरे पति को फुर्सत ही नहीं मिल पाई आज तक। आज पता चला कि आप सर्किट हाउस में लोगों से मिल रहे हैं सो अपने को रोक नहीं सकी, मिलने चली आई। काफ़ी देर से बाहर खड़ी हूँ, बच्चे की राह देख रही थी कि लौटे तो उसी के साथ आपसे मिलूँ।"

"क्या आप मुझे जानती हैं?"

धापू निरुत्तर......। 

फिर धापू दोनों हाथ जोड़े...., "आपका बेटा प्रिंस अब कैसा है? तीन साल का था, तब देखा था।"

"धापू... बेटा प्रिंस..... तीन साल का था तब देखा था.....।" सोच में पड़ गए सुमित। काफ़ी देर मौन रहे फिर चेतना-सी आई। 

"धापू तुम! तुम तो........।"

"गांडी थी," धापू ने बेखटके जोड़ दिया। 

फिर बोली, "थी, साब; लेकिन तब जब मेरे बई जी और मेरी माँ अशिक्षा, अज्ञानता के अंधकार में डूबे थे। उन्हें बेटी से प्यार तो था, तभी तो उन्होंने मुझे पाँचवी तक की शिक्षा दिलाई थी। फिर कर दिया था विवाह न जाने क्या सोचकर। फिर जब मेरे परित्याग की बात आई तो बिना कोई देर किए मेरे बई जी मुझे ले आये अपने घर। यह उनका प्यार ही था, न होता तो परित्याग की गयी धापू सालों तक पलती कैसे साब ?....समय बड़ा बलवान होता है साब। मेरी बुआ का लड़का मेडीकल की ऊँची पढ़ाई करके आया था दिल्ली से उस दिन। उसने मेरे बई जी से सुनी, समझी मेरी स्थिति।"

"मामा जी दीदी को दिल्ली ले चलो।"

मेरे बई जी तो कुछ भी करने को तैयार बैठे थे उन्हें कोई बताने वाला, रास्ता दिखाने वाला चाहिए था। .....रास्ता तो आपको भी मालूम था पर "पराए पर कौन विश्वास करेगा, यही सोचकर तो आप नहीं कह सके थे कुछ। है न?"

थोड़ी देर रुक कर बोली, "दिल्ली में मेरी तक़दीर ही बदल गयी। फिर घर आते ही पास के गाँव के मकसा लाल से शादी हो गई मेरी। आजकल वह पड़ौसी ज़िले में अध्यापक हैं। मैं और मेरा यह बेटा इसी क़स्बे में रहते हैं बेटे की पढ़ाई की ख़ातिर।"
 
सुमित आँखे बंद कर ऊपर की ओर देखा, मानो ईश्वर का धन्यवाद कर रहे हों कि मेरी अंतरात्मा की आवाज सुन तो ली प्रभु आपने। 

कुछ क्षणों बाद.... बोले, "धापू जी, मेरे लायक़ कोई काम हो तो बताइएगा," कहकर हाथ जोड़ते हैं सुमित। 

प्रत्युत्तर में धापू भी हाथ जोड़ती है। 

"अब चलती हूँ साब,"..कह कर मुड़ती है और बालक की उँगली पकड़े बाहर निकल जाती है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
चिन्तन
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
कविता
कहानी
कविता - क्षणिका
बच्चों के मुख से
डायरी
कार्यक्रम रिपोर्ट
शोध निबन्ध
बाल साहित्य कविता
स्मृति लेख
किशोर साहित्य कहानी
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो