माँ!
डॉ. आर.बी. भण्डारकर
हरिओम बड़े शहर में पदस्थ हैं, एक बड़ी कम्पनी में उच्च पदाधिकारी हैं। इसी शहर में उन्होंने घर बना लिया है।
पिताजी को गुज़रे तो बरसों हो गए, गाँव में अकेली माँ रहती हैं। हैं तो ग़ैर पढ़ी-लिखी पर दुनियादारी का बहुत ज्ञान है उन्हें। दृढ़ निश्चयी भी हैं। इसीलिये वे तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अपने एकमेव पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाने में सफल हुई हैं।
माँ का गाँव में अधिक मन लगता। कहतीं, “यहाँ ही तो जड़ें है; घर-परिवार, सुख-दुख के साथी, जाने-पहचाने रास्ते, आसपास के पेड़-पौधे, मन भावन चिरेरू। शहर में यह सब कहाँ?” सो वे बेटे को अपने प्यार-दुलार से फुसला कर हर बार स्वयं की गाँव में ही रहने की सहमति ले लेतीं।
पिछले कुछ दिनों से बेटा-बहू लगातार आग्रह कर रहे थे कि वे कुछ ही दिनों के लिए सही, उनके नए घर में आयें, कुछ दिनों उनके साथ रुकें। माँ भी मान गयीं, बोली—तुझे लेने आने की आवश्यकता नहीं, तू दिन-दिन की किसी ट्रेन का टिकट भिजवा दे, मैं आ जाऊँगी।
आज हरिओम बहुत ख़ुश है, माँ जो आ रही हैं। अभी 5 बजे हैं, माँ की ट्रेन रात 8 बजे पहुँचने वाली थी। बैठक में हरिओम उसकी पत्नी अनुपमा बार-बार घड़ी की ओर देखते हैं फिर कुछ अपना काम करने लगते हैं।
अब उनके कानों में ढोल-ढमाकों की आवाज़ गूँजने लगती है। दोनों बाहर निकल कर देखते हैं, विभिन्न वाहनों में माँ दुर्गा की मूर्तियाँ ले आई जा रहीं हैं, आज शारदीय नवरात्रि के प्रथम दिन बड़े ही धूमधाम और श्रद्धा भाव से जगह-जगह माँ को विराजमान किया जायेगा।
अब अचानक हरिओम के मन में एक विचार कौंधता है, कुछ निश्चय कर वह एक दो जगह फोन करता है।
ठीक 7 बजे पति-पत्नी कार से रेलवे स्टेशन के लिए निकलते हैं। गाड़ी समय पर आ गयी। दोनों ने माँ को ट्रेन से उतारा, कार तक ले आये, जैसे ही तीनों कार के पास पहुँचे, वहाँ खड़े बैंड-बाजे वाले बैंड बजाना शुरू कर देते हैं। माँ और अनुपमा ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। दोनों कार में पिछली सीट पर बैठ जाती हैं। हरिओम गाड़ी चलाने लगते हैं। अब आगे बैंड-बाजे बजते चल रहे हैं पीछे-पीछे हरिओम धीमी गति से कार चला रहे हैं।
काफ़ी दूर चलने पर अनुपमा का ध्यान बाजे वालों की ओर फिर गया, वह आश्चर्य मिश्रित भाव से हरिओम से पूछती है, “यह बैंड-बाजे वाले अपने आगे आगे बैंड बजाते हुए क्यों चल रहे हैं?”
हरिओम मुस्कुराते हुए कहते हैं, “आज माँ का आगमन हो रहा है न!”
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