आर. बी. भण्डारकर – डायरी 004 : बाल जीवन
डॉ. आर.बी. भण्डारकरदिनांक 18 अप्रैल 2021
आज रविवार है।
सामूहिक नाश्ते के बाद अब सब लोग बैठक में गप-शप कर रहे हैं, केवल ओम भैया जी अपने काम मे लगे हैं। . . . मैं सोच रहा था कि आज के होम वर्क (Home work) में वे तीन अक्षरों वाले शब्द लिख रहे होंगे, पर उधर नज़र दौड़ाई तब पता चला कि भैया जी तो पेंटिंग (painting) कर रहे हैं।
मैं आज की डायरी लिखने में व्यस्त हो गया हूँ।
साहित्य में गप को गॉसिप (Gossip) कहा गया है। गप अंतहीन होती है, जब भी बंद करो, तब कुछ अधूरापन-सा ही लगता रहता है। क्यों? क्योंकि गप का कोई विषय नहीं होता, क्षण-क्षण पर विषय बदलते रहते हैं। विषय में से विषय निकलते रहते हैं। . . .
हाँ, तो इसी गप्पास्टिंग (गप्पबाज़ी) में पत्नी जी ने कुछ काम की बात कह दी– "बिटिया जी, रोली (छोटी बिटिया जी) के कमरे के एसी के आउटर बॉक्स के पाइप की पूरी फ़ोम निकल गयी है। ताँबे का पाइप दिखने लगा है, शायद इसीलिए कूलिंग भी कम होती है।"
बिटिया जी– "चलो, देखते हैं।"
(बिटिया जी अपनी मॉम के साथ उस ओर चली जाती है। दूरी अधिक न होने से उनकी बातचीत स्पष्ट सुनाई देती रहती है।)
बिटिया जी– "मॉम इस पर तो धूल भी बहुत जम गई है, पाइप और ब्रश लाओ; पहले इसे साफ़ कर देती हूँ।"
"नहीं sss . . .। इसका तो ए एम सी है न? तुम तो सर्विस सेंटर को फोन कर दो।"
बिटिया जी – "मॉम!!! शहर में कोरोना कर्फ़्यू (लॉक डाउन) लगा हुआ है, क्या सर्विस सेंटर खुला होगा? . . .और अगर (आवश्यक सेवाओं के तहत) खुला भी होगा तो कोरोना की ऐसी विकट परिस्थिति में क्या आप किसी बाहरी व्यक्ति को घर के अंदर आने देंगीं?"
(फिर, अपनी छोटी बहिन को आवाज़ देकर)"रोली ..पाइप और ब्रश लाओsss . . .।"
अपनी मॉम की तरफ मुख़ातिब होकर– "मॉम आप परेशान न हों, मैं इसे क्लीन (clean) करके, तांबे के पाइप पर मुलायम गत्ता लपेट कर टेप चिपका दूँगी। कोरोना के प्रकोप से कुछ राहत मिलने पर टेक्नीशियन बुला कर उससे ठीक करवा लूँगी।"
रोली जी अपनी बहिन जी तक स्टूल, पाइप, ब्रश पहुँचाती हैं।बिटिया जी स्टूल पर चढ़कर पाइप से पानी की तेज़ धार ए सी की जाली पर डालती जाती हैं, ब्रश भी चलाती जाती हैं। उनकी मॉम, छोटी बहिन दर्शक बनी खड़ी हैं।
बिटिया जी को इस प्रकार काम करता देखकर यहाँ मुझे अपने श्वसुर साहब परम् संत चौधरी गरीबदास सिंह की एक सीख याद आती है। वे कहते थे लड़का हो या लड़की हर एक को अपेक्षित शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ शासन, प्रशासन से लेकर घर-गृहस्थी तक का हर काम सीखना चाहिए। इससे पहला फ़ायदा तो यह है कि व्यक्ति स्वावलंबी बनता है, कभी किसी विशेष कार्यकर्ता के अभाव में वह काम स्वयं कर सकता है, इससे जीवन गतिमान बना रहता है, उसमें अवरोध या ठहराव नहीं आ पाता है। दूसरा फ़ायदा यह कि जब बाहर से आया हुआ सम्बन्धित व्यक्ति आपका कार्य करता है तो आप उसका ठीक से पर्यवेक्षण कर सकेंगे आवश्यकता पड़ने पर उसका सही मार्ग दर्शन कर सकेंगे। . . .श्वसुर साहब द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारतीय सेना में रहे। उस समय उन्होंने बर्मा, सिंगापुर, थाईलैंड आदि देशों का भ्रमण किया। सन् 1957 से 62 तक वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। बाद में वे पूर्ण रूपेण आध्यत्म में सन्नद्ध हो गए। उनका बाद का 98+ वर्ष का जीवन धर्म और दर्शन के अध्ययन, चिंतन, मनन में ही बीता। उन्होंने जीवन में अप्रतिम ज्ञान अर्जित किया था। उसमें से कुछ हम सबको भी मिला है।
"बुआ sss! इसमें कौन सा कलर (colour) करूँ?" यह आवाज़ है ओम भैया जी की, जो अपनी दादी, मम्मा, बुआ के कार्यों से अनजान, मेरे पास बैठ कर पेंटिंग (painting) कर रहे हैं।
"रुको, अभी आती हूँ," बुआ कहती हैं।
ओम भैया जी– "जल्दी आओ, मुझे पेंटिंग (painting) अभी फिनिश (finish) करनी है।"
"अच्छा, तो इधर ही आ जाओ, यहीं बता दूँगी।"
बुआ ने बुलाया तो भैया जी ड्राइंग शीट, ब्रश लेकर वहीं पहुँच गए।
वहाँ का दृश्य ओम भैया जी को बड़ा रुचिकर लगा। सोचा होगा, कहाँ पेंटिंग-बेंन्टिग में लगा हूँ। यहाँ कितना बढ़िया लग रहा है, पूरी बालकनी में पानी बह रहा है। धूल, मिट्टी गिर रही है, अहा! यह तो बड़ा मज़ेदार काम है।
"ममा! पाइप और ब्रश मुझे दो मैं क्लीनिंग (cleaning) करना चाहता हूँ।"
"भैया जी आप बहुत छोटे हैं आप क्लीनिंग नहीं कर पायेंगे। देखो, कितना ऊँचा है, ममा स्टूल पर खड़े होकर तब पहुँच पा रही है। भैया कैसे पहुँचेगा?"
"मैं स्टूल पर चढ़कर पहुँच जाऊँगा, मैं बड़ा हो गया हूँ।"
इतना कहते हुए भैया जी पाइप खींचने लगते हैं।
बिटिया जी– "रोली, इन्हें पकड़ ले जाओ। उधर नाना जी के पास।"
रोली के पकड़ने से पहले ही भैया ग़ुस्सा हो जाते हैं। ग़ुस्से में वे अपने दोनों हाथ सीने से ऐसे चिपटा लेते हैं कि मानो इन्हें ठण्ड लग रही हो। होंठ थोड़े सिकोड़ लेते हैं, चेहरा को एक विशेष मुद्रा में ढालकर तिरछा कर लेते हैं।
भैया जी ऐसी ही मुद्रा में आकर मेरे पास बैठ जाते हैं।
मैं, उनकी तरफ देखे बिना– "क्या हुआ भैया जी? (यद्यपि मुझे सब कुछ मालूम था।)
"एंग्री (angry) हूँ।"
"किससे?"
"ममा से, दादी (नानी) से और बुआ (मौसी) से।"
"क्यों?"
" मुझे ए सी की कलीनिंग नहीं करने दे रहे हैं।'
"भैया जी, आप ए सी तक कैसे पहुँच पाएँगे।आप तो अभी छोटे हैं।"
"मैं छोटा नहीं हूँ, बड़ा हो गया हूँ।"
"कैसे?"
"मॉर्निंग (morning) में ममा कह रही थी, ओम भैया अब आप बड़े हो गए हो, एक ही बार में गिलास का पूरा मिल्क (milk) फिनिश (finish) करो।"
मेरी हँसी छूट पड़ती है। अब मैं भैया जी को गोद में भर लेता हूँ। उनके गालों पर जो मोती लुढ़कने लगे थे उन्हें रुमाल से पोंछता हूँ।
भैया जी– "नाना जी, जब इन लोगों को मेरी कोई हेल्प (help) लेनी ही नहीं थी, तो फिर मुझे बुलाया ही क्यों था?"
"किसने बुलाया था?"
"बुआ ने।"
मैं (मन ही मन) भाई साहब बुआ ने कलीनिंग के लिए नहीं, पेंटिंग में कलर बताने के लिए बुलाया था।
ओम भैया तो अपनी गर्दन नीचे किये हुए यह सब कह रहे थे, इसलिए उन्हें पता नहीं चला कि कब उनकी दादी, ममा और बुआ आ गईं और उनकी बाल-सुलभ बातों पर मुस्करा रही हैं।
मैं कहता हूँ– "अच्छा भैया जी, अपुन इन लोगों से कुट्टी कर लेते हैं और चलो अपुन लोग गार्डन में कलीनिंग (cleaning) और वाटरिंग (watering) करते हैं।"
भैया जी ख़ुश। जो मोती उनकी आँखों की कोयों में फँसे थे उन्हें अपनी हथेलियों से हटाते हैं और कहते हैं– "चलो नाना जी।"
मैं अपनी चप्पल पहनता हूँ, पाइप ले आता हूँ। तब तक भैया जी अपने क्रोक्स पहन लेते हैं। . . .हम दोनों गार्डन पर पहुँचते हैं।
वास्तव में घर के अग्र भाग में एक तरफ़ गैराज है तो दूसरी तरफ़ लगभग 11 गुणा 11 फुट की जो जगह है, इसी में हम लोगों ने (हम लोगों माने मैंने और पत्नी जी ने) दो अशोक, एक अनार, एक नींबू और कुछ फूल, पत्ती वाले वे पौधे लगाये हैं जो मेरे एकमेव पुत्र द्वारा लाये गए हैं। इस गार्डन में मैं और मेरी पत्नी ही निराई, गुड़ाई करते हैं और खाद-पानी देते हैं। हाँ मेरी दोनों पोतियाँ (मिट्ठू जी, पीहू जी) और दौहित्र (ओम भैया जी) अवश्य ही इन कामों में हमारा सहयोग (सहयोग, आगे स्पष्ट हो जायेगा) करते हैं।
"नाना जी बहुत लीव्स (leaves) पड़ी हैं, आप लीव्स (leaves) की कलीनिंग (cleaning) करना, मैं वाटरिंग (watering=सिंचाई) करूँगा," ओम भैया कार्य विभाजन करते हुए कहते हैं।
"ओ के भैया जी।"
कलीनिंग वाटरिंग का कार्य शुरू होता है। ओम भैया जी की वाटरिंग तभी समाप्त होती है जब वे एक क्यारी में ख़ूब पानी भर देते हैं फिर उसमें घुस कर धमा-चौकड़ी करते हैं। आज भी यही हुआ। . . .जब उनके क्रोक्स और कपड़े कीचड़ में सन गए तब उनकी दादी जो अब तक चुपचाप खड़ी थीं, हस्तक्षेप करती हैं– "भैया निकलो तो बाहर, चलो तुम्हारे कपड़े चेंज कर दें।"
भैया जी निकल कर बाहर आते हैं। हाथ ऊपर करते हैं। दादी इशारा समझ कर उन्हें गोदी में उठाकर वाश रूम ले जाती हैं। अब भैया जी के कपड़े चेंज तो होंगे ही, दादी को भी अपने कपड़े चेंज करने पड़ेंगे, बिना कुछ किये धरे। . . . लाड़ के मारे कीचड़ में सने ओम भैया जी को गोद मे भर लिया था जो।
ओम भैया जी ने उस क्यारी में गार्डनिंग में जो सहयोग किया था मैं उसकी भरपाई करता हूँ। अस्त-व्यस्त हो चुकी उस क्यारी को व्यवस्थित करता हूँ। बाहर निकल कर हाथ-पैर धोकर बैठक में आते ही यह डायरी पूर्ण करने लगता हूँ।
यह सब देखते, सुनते, करते, भैया जी के संग खेलते हुए याद आते हैं सूरदास जी, जो कितने उम्दा, कितने सहज भाव से अर्न्तमन के भाव लिखते हैं– "जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ सो नन्द-भामिनी पावै।"
अपने मूल रूप में तो हर बच्चा निश्चित लीलाविहारी कृष्ण हैं; हम कितने यशोदा या नन्द हैं, इसके लिए तो हमें ही अपने अंदर झाँकना पड़ेगा।
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