आर. बी. भण्डारकर – डायरी 008 – जीत का अहसास
डॉ. आर.बी. भण्डारकरदिनांक 04 जुलाई 2021
आज रविवार है; तदनुसार आज विक्रम संवत् 2078 के आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि है जबकि शक सम्वत 1943 के आषाढ़ मास की तेरह तिथि है। आज हिजरी सन् 1442 के जिल क़ाअदह मास की 23 तारीख़ (अर्थात् 23.11.1442) है।
हमारे यहाँ के प्रचलन में विक्रम संवत् के अनुसार वैसे तो आज आषाढ़ कृष्ण पक्ष दशमी है पर भारतीय पंचांग के अनुसार आज सायं 07 बजकर 55 मिनट से ही एकादशी तिथि का शुभारंभ हो जायेगा, यह तिथि 05 जुलाई 2021 को रात्रि 10 बजकर 30 मिनट तक रहेगी। हाँ, एकादशी भले ही आज सायं से लग रही है पर चूँकि दिन की शुरुआत सूर्योदय से मानी जाती है, अस्तु एकादशी कल 5 जुलाई 2021 सोमवार को ही मानी जायेगी। इस एकादशी का ज़िक्र विशेष रूप से इसलिए क्योंकि आषाढ़ माह के प्रथम पक्ष (कृष्ण पक्ष) की इस एकादशी तिथि को योगिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है; इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है, व्रत रखा जाता है। यह व्रत, पूजा को सांसारिक मनुष्य की सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला कहा गया है।
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मैं आज सवेरे एक घण्टे पहले ही, लगभग साढ़े चार बजे उठ गया था . . . रात भर ठीक से सो नहीं पाया जो। इसी बात में मन उलझा रहा कि आज के व्यक्ति को हो क्या गया है? अक़्सर लोग एक दूसरे के प्रति नकारात्मकता जैसे भाव में क्यों जकड़े रहते हैं?
साप्ताहिक अवकाश होने से आज मिट्ठू जी, पीहू जी और ओम भैया जी, सब लोग यहाँ घर पर ही एकत्रित हैं और सब लोग एकसाथ जुट जाने से ही यह लोग अभी तक बैठक में नहीं आये हैं, ऊपर ही अपने खेल में व्यस्त, मस्त हैं।
ऐसा अवसर पाकर मैं आज के अभिजीत मुहूर्त में (प्रारंभ दोपहर 12 बजकर 04 मिनट से) डायरी लिखने बैठ गया हूँ।
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जैसा चिंतन चल रहा था तदनुसार ही मानस-पटल पर एक वाक़या उभरता है . . .!
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वह जो दूर सामने खड़ा दिख रहा है न; दुबला-पतला, निर्विकार; चेहरे पर न ख़ुशी न ग़म, पर मस्त-सा; उसका नाम 'रग्घू' है।
क्या? 'घुग्घू'ss . . .! हा हा हा . . .।
नहीं भाई, किसी का उपहास मत उड़ाओ, उसका नाम 'रग्घू' है, 'रग्घू'।
(ऐं . . . )
. . . ऊँssss . . . हूँ; ठीक ही कह रहे हो भाई आप . . . 'घुग्घू' . . . । 'घुग्घू' . . . की ही तो एक किस्म 'उल्लू' होती है। 'उल्लू' हमारे यहाँ 'मूर्ख' या 'कम बुद्धि वाले' का बोधक होता है। सो ठीक है . . . उसे आप घुग्घू मतलब उल्लू भी कह दो तो आपकी मर्ज़ी।
'उल्लू' तो एक पक्षी है पर जैसे 'सीधे-सादे', 'सरल स्वभाव वाले' व्यक्ति को विशेषण के रूप में (लाक्षणिक भाव से) 'गऊ' कहा जाता है, वैसा ही कुछ कि 'कम अक़्ल वाले' व्यक्ति को 'उल्लू' कहा जाता है। अब यह बात अलग है कि कुछ 'उल्लू' होते हैं, कुछ को 'उल्लू' बना दिया जाता है। रग्घू इनमें से किस श्रेणी में आएगा, आप तय करते रहना।
आप कहेंगे कि ऐसे कुछ उल्लू लोगों को तो 'घुग्घू' भी कहा जाता है।
हाँ, कहा जाता है पर वह चालाक, काइयाँ क़िस्म के लोगों के लिए प्रयुक्त होता है। . . . वह ऐसा नहीं है न! इसीलिए तो मैंने कहा है कि उसका नाम 'घुग्घू' नहीं 'रग्घू' है।
'रग्घू' नाम है तो यह 'उल्लू' कहाँ से आ गया?
अरे भाई! क्या 'रग्घू' को 'उल्लू' नहीं बनाया जा सकता है।
(हूँ . . . )
हाँ, तो वही बात है।
रग्घू एक जगह, नज़दीकी रिश्तेदार के यहाँ आयोजित शादी समारोह में गया। अब नज़दीकी रिश्तेदारी में शादी थी, तो शादी में शामिल होने वाले सभी घराती, बराती भी उसके रिश्तेदार हुए। . . . है न?
"सो कैसे?"
अरे भाई कैसे समझाएँ आपको? वे सब, घराती हों या बराती, शादी समारोह में आये हैं, तो रिश्तेदार तो हो ही गएss . . .।
(हेंsssss . . . )
. . . अच्छा समझाते हैं आपको ज़रा तफ़सील से। . . . एक बार रग्घू एक जगह एक शादी में गया था। . . . यहाँ पहले बताई हुई शादी की बात नहीं कर रहा हूँ, एक दूसरी शादी की बात कर रहा हूँ। . . . इस शादी में उसे "लड़की के फूफा" की भूमिका का निर्वहन करना था। शादी में घराती और बराती दोनों पक्ष आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्तर की दृष्टि से अपेक्षाकृत कमज़ोर थे सो दूल्हेराजा और उनकी मित्रमण्डली भी उसी स्तर की थी। पर हमारे यहाँ शादी में वर पक्ष का पलड़ा भारी होता है, वे कन्या पक्ष के लिए सम्माननीय होते हैं; इसलिए वे कुछ रुआब में भी होते हैं। यहाँ भी ऐसी ही स्थिति थी। रग्घू ठहरा लड़की का फूफा, सो वर पक्ष के लोगों की तुलना में अधिक बढ़िया कोट-पेंट पहनने के बावजूद अपनी सीमा में खड़ा था।
इसी बीच दूल्हेराजा के एक साथी ने पूछा, "आप लड़की के फूफा हैं?"
"जी हाँ।"
"तो इसके भी फूफा हुए (इशारा दूल्हेराजा की तरफ़ था)।"
"जी हाँ। "
"ये (दूल्हेराजा) हम सबका मित्र है, भाई है; तो आप हम सबके भी फूफा हुए?"
"जी हाँ। "
एक समवेत स्वर गूँजता है, "हा हा हा हा . . . अपने फूफा तो बड़े स्मार्ट हैं।"
"अच्छाss अच्छाsss; इसीलिए आप कह रहे थे कि शादी में आये हुए सब घराती-बराती उसके (रग्घू के) रिश्तेदार हुए।"
हाँ sss.. तो, अब तो समझ गए आप। इन लड़कों ने आखिर समझा ही दिया आपको।
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तो अब आते हैं पहले वाली शादी पर, जिसका ज़िक्र प्रारम्भ में हुआ है . . . ।
"अवश्य! अवश्य!!"
तो उस शादी में रग्घू और अन्य कई रिश्तेदार इकट्ठे हुए थे। जब बारात चली गयी तो बैठक में घराती पक्ष के प्रायः सभी पुरुष रिश्तेदार बैठे हुए गपशप कर रहे थे, कुछ आराम भी कर रहे थे; कुछ रिश्तेदार लोग मेज़बान से अनुमति लेकर अपने-अपने घर चलते भी जा रहे थे।
इस बीच बैठक में एक साहब आये, थोड़े बुज़ुर्ग थे, उन्होंने यह नहीं देखा कि उस वक़्त वहाँ मेज़बान उपस्थित ही नहीं है, उन्हें लगा कि मेज़बान वहाँ हैं सो वे मेज़बान को उपस्थित मानकर बोले, "लला हमैं अनुमति देउ, अब हमहुँ चलहैं।"
बैठक में उपस्थित एक मेहमान ने कहा,"दद्दा, मेजवान कितैऊ निकर गए हैं, अबै हिंया हैं नइयां।"
रग्घू को अक़्ल की अपच हो रही थी, सो 'दाल-भात में मूसलचन्द' कहावत को चरितार्थ करता हुआ बीच में बोल पड़ा, "दद्दा, आपके गाँव की ओर जाने वाली एकमात्र बस तो निकल गयी है। . . . अब तो आप कल ही जा पायेंगे।"
रग्घू का इतना बोलना हुआ ही था कि बैठक में उपस्थित एक दूसरे सज्जन उस पर पिल पड़े, "तुम कौन होते हो रोकने वाले? क्या तुम्हारे यहाँ शादी थी? क्या यह मेहमान तुम्हारे यहाँ आये हैं? तुम्हें कैसे मालूम कि मेज़बान को इन्हें रोकने की गुंजाइश है भी या नहीं? (थोड़ा रुक कर) तुम इन्हें रोक तो रहे हो, ये रुक जाएँगे तो क्या इन्हें तुम अपने घर ले जाओगे?"
चेहरा उतर गया रग्घू का। वह बड़ी मुश्किल से कह पाया, "इन दद्दा के गाँव तरफ़ जाने वाली बस जब निकली तब मैं रोड पर ही खड़ा था। . . . मैंने तो बस निकल जाने और इतनी दूर तक जाने के लिए अब कोई और साधन न होने के मद्देनज़र यह बोल दिया था।"
"क्यों बोला? तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले? क्या तुम्हें सभी के साधनों की जानकारी है कि कौन रिश्तेदार अपने घर किस साधन से वापस जाने वाला है?"
एक तो इन साहब की बात सौ टंच सही थी, दूसरे इस तरह की डाँट पड़ने से सबके सामने "रग्घू भैया कौ भोड़रौ उतर गओ" (यह कि बेटा ज़्यादा अक़्लमंद बन लो, बोल लो बीच में, और बोलोगे) सो उसका (रग्घू का) मुँह रुआँसा हो आया।
ऐसे में रग्घू की लाज रखी वहाँ उपस्थित एक अन्य साहब ने, "साहब जी आप बेकार में ही नाराज़ पर नाराज़ होते जा रहे हैं रग्घू भैया पर; इन बेचारे ने तो केवल उनकी बस निकल जाने की जानकारी देकर संभावना जताई थी कि यह दद्दा अब कल ही जा पाएँगे। इन्होंने ये तो नहीं कहा कि अब आपको यहीं रुकना पड़ेगा।"
तीर सही जगह पर लगा। नाराज़ होने वाले सज्जन चुप हो गए। अस्तु हमारे रग्घू जी को कुछ-कुछ जीत जैसा अहसास हुआ।
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यह लो! मिट्ठू जी अपनी आज की पेंटिंग दिखाने आ गए हैं।
बहुत सुंदर पेंटिंग है मिट्ठू जी, शाबाश!
ग़ौर से देखने पर मुझे इस पेंटिंग में हमारे रग्घू जी ही नज़र आ रहे हैं; प्रसन्नता का अनुभव करते से। लीजिए, आप भी देखिए।
प्रसन्नचित्त रग्घू जी? |
अपनी आज की डायरी में ऐसे लोगों के साथ होने वाले ऐसे वाक़यों को लिखकर, मैं अब कुछ सुकून का अनुभव करते हुए अपने गार्डन में आ गया हूँ।
1 टिप्पणियाँ
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आदरणीय सर, साहित्यक डायरी 'जीत का अहसास' पढी, भाषा एवं कथ्य एकदम सटीक हैं, जो आंचलिक बोली, लोकोक्तियाँ, हास परिहास लिए हुये, अपने क्षेत्र का सजीव चित्रण करते हैं, साथ ही वर्तमान से जोडती हुई भविष्य के लिए एक दस्तावेज है. मिट्ठू जी की पेंटिंग बहुत सुन्दर है उन्हें आशीर्वाद, बधाई एवं धन्यवाद सर
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