समाजीकरण

01-05-2023

समाजीकरण

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

तीन वर्षीय श्लोक भैया चीनी मिट्टी के खिलौने वाले घोड़े को लेकर मस्त होकर आँगन में इधर से उधर घूम घूम कर खेल रहे थे। उनके दस वर्षीय बड़े भाई ज्ञान जी वहीं चटाई पर बैठ कर आज का होम वर्क कर रहे थे जबकि दादा जी वहीं एक कोने में कुर्सी पर बैठ कर अख़बार पढ़ रहे थे। 

अरेsss . . . यह क्या हुआ। श्लोक जी के हाथ से घोड़ा गिर गया। उसकी दो टाँगें टूट गईं, पूँछ भी टूट गयी; श्लोक जी रोने लगे। 

दादा जी ने अख़बार में आँखें गढ़ाए हुए ही पूछा, “ज्ञान देखो क्या हुआ, ये श्लोक जी क्यों रोने लगे?” 

ज्ञान ने पहले ही सब कुछ जान लिया था सो बोले, “दादा जी, श्लोक जी का घोड़ा गिर कर टूट गया है, इसलिए . . .” फिर श्लोक जी की ओर मुख़ातिब होकर बोले, “अले अले श्लोक, इसमें रोने की क्या बात है। अभी जुड़ जाएगा आपका घोड़ा।” 

ज्ञान जी कमरे में गए और एक गम-ट्यूब लेकर लौट आए। 

चिपकाने से पहले ज्ञान जी ने घोड़े के टूटे हुए अंग घोड़े में लगाकर जाँच की। 

अब दादा जी ने अख़बार अलग रख दिया और ग़ौर से श्लोक जी की उत्सुकता व ज्ञान जी की क्रियाशीलता देखने लगे। 

ज्ञान जी ने टूट कर अलग हुई पूँछ को घोड़े में यथास्थान लगाकर देखा . . . हाँ, बिल्कुल फ़िट। 

अब उन्होंने इसी प्रकार उसकी एक टाँग चेक की तो वह फ़िट ही नहीं बैठ रही थी। बैठती भी कैसे? वे दायीं टाँग बायीं तरफ़ लगा कर चेक कर रहे थे जो। 

दादा जी हँसते हुए बोले, “ज्ञान बेटा, जो अंग जहाँ का है, वहीं फ़िट होगा, दूसरी जगह फ़िट हो ही नहीं सकता। आप घोड़े की दायीं टाँग बायीं तरफ़ लगा रहे हैं इसलिये फ़िट नहीं बैठ रही है। इसे दायीं तरफ़ लगाओ।” 

ज्ञान जी ने ऐसा ही किया। 

“हाँ दादा जी एकदम फ़िट।” 

“अब बायीं टाँग को बायीं तरफ़ लगाओ . . .” 

“दादा जी, एकदम फ़िट।” 

अब ज्ञान जी टूटे हिस्सों में गम लगाकर दोनों टाँगें और पूँछ ठीक से चिपका देते हैं। 

जोड़ इस प्रकार फ़िट बैठ जाते हैं कि बिना ग़ौर से देखे लगता ही नहीं है कि घोड़ा टूट भी गया था। 

श्लोज जी अपना घोड़ा पाकर ख़ुश होकर अंदर अपनी दादी जी के पास भाग जाते हैं। 

दादा जी चिंतन करने लगते हैं कि सच में समाज में भी जिन व्यक्तियों का स्वभाव, आचरण, कार्य-व्यवहार जिन लोगों से मिलता है वे परस्पर मिल कर एक मज़बूत समूह (ग्रुप) बन जाते हैं, शक्तिशाली हो जाते हैं; जिनका नहीं मिलता वे अलग-थलग पड़ जाते हैं। अलग-थलग पड़े यही लोग समूह बनने की ऐसी प्रक्रिया को गुटबाज़ी कहने लगते हैं। 

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