आर. बी. भण्डारकर – डायरी 009 – नाम
डॉ. आर.बी. भण्डारकरदिनांक 15 जुलाई 2021
दिन का तीसरा पहर है। हम लोगों को आज सुबह कोरोना वैक्सीन का दूसरा डोज़ लगना तय था अस्तु मैं आज की डायरी लिखने अब बैठ सका। ध्यान गया "नामों" पर; आज की डायरी का शीर्षक सबसे पहले तय करना था न, इसलिए।
मेरे चार वर्षीय दौहित्र ओम भैया जी का नाम है 'अगस्त्य प्रताप सिंह।' इनकी बुआ जब इनसे नाम बोलने को कहती हैं। तो ओम भैया जी अपना नाम बोलते हैं "अगच्छ पप्पाप छिंह।" इस पर बुआ के साथ–साथ पास बैठे अन्य लोग भी हँसने लगते हैं। (उल्लेखनीय है कि ओम भैया जी अपनी ममेरी दीदियों के देखा–देखी अपनी मौसी को बुआ कहते हैं।)
सबको हँसता देख कर ओम भैया जी शिकायती लहजे में– "नाना जी बुआ परेशान करती है।"
नाना जी– "अब किसी ने भैया जी को परेशान किया तो उसकी बहुत डाँट पड़ेगी।"
भैया जी ख़ुश हो जाते हैं।
शेक्सपियर ने कहा है कि "क्या धरा है नाम में" पर मुझे लगता है कि नाम में बहुत कुछ होता है। वस्तुतः नाम या अभिधान किसी मनुष्य, स्थान या वस्तु की भौतिक पहचान होता है। नाम ऊपरी पहचान के साथ-साथ बहुत हद तक सम्बन्धित के आंतरिक गुणों और व्यवहार को भी प्रकट करता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में नामकरण करते समय ग्रह-नक्षत्रों की दशा, दिशा आदि की स्थिति का ख़्याल रखा जाता है, तदनुसार जातक के नाम को उसके भावी स्वभाव व भविष्य के अनुकूल बनाने का प्रयास किया जाता है। किसी धर्म विशेष से इतर भी सभी लोग नाम, शीर्षक रखते समय यह कोशिश करते हैं कि नाम शुभ हो, वह अर्थहीन न हो या उसका अर्थ अटपटा न हो। विशेष ज़ोर इस बात पर होता है कि बच्चे के जिस भावी व्यक्तित्व की कल्पना की जाती है या आशा की जाती है, नामकरण में यह कोशिश की जाती है कि बच्चे का नाम सदैव उसके उस व्यक्तित्व को सार्थक व प्रदर्शित करे। अस्तु, ध्यातव्य है कि भारतीय समाज में आपको राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, अर्जुन, नकुल, सहदेव नाम तो बहुतेरे मिल जायेंगे पर रावण, विभीषण, कुम्भकर्ण, दुर्योधन, दुशासन, जयचंद आदि नाम ढूँढ़े भी नहीं मिलेंगे।
नाम की महिमा, सार्थकता अनंत है चाहे वह लौकिक भाव से हो या ईश्वरीय भाव से–
गोस्वामी जी लिखते हैं–
"कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥"
और
"रामचरित मानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥"
कबीर साहेब कहते हैं–
"नाम कुल्हारी कुबुद्धि बन काट किया मैदान।"
निपट देहात की एक नायिका कहती है–
"काँटो बुरौ करील कौ, जल बदरई कौ घाम।
डाह बुरौ है सौत कौ अरु बैरी कौ नाम।"
+ + + + + + + + +
मुझे स्मरण आता है कि मेरी बिटिया जी ने अपने पुत्र ओम भैया जी का नाम तय करने में खूब मानसिक श्रम किया था।
+ + + + + + + + +
भारतीय जन मानस में व्यक्ति के नामकरण के तीन आधार प्रचलन में रहे हैं– पहला, जन्म के नक्षत्र के अनुरूप नामकरण। दूसरा, भगवान या आराध्य देवता के नाम पर नामकरण। तीसरा आधार है माता-पिता बच्चे की जैसी परिकल्पना करते हैं वैसा ही नामकरण।
+ + + + + + + + +
मैं अपनी 5 वर्षीय छोटी पोती को उसके नाम या पुकारने के नाम से कम बुलाता हूँ प्रत्युत उसको सदैव रानी बिटिया कहता हूँ। वह बहुत भोली है। एक दिन मुझसे पूछती है– "बब्बा जी, आप मुझे रानी बिटिया क्यों कहते हैं ?"
प्रश्न वाज़िब था, उत्तर देना आवश्यक था। मैंने कहा कि "क्योंकि मेरी बिटिया ब्यूटीफ़ुल (Beautiful) है और इंटेलिजेंट (intellegent) है, इसलिए।"
बिटिया जी बहुत ख़ुश। सबको बता आई– बब्बा जी ने कहा है कि मैं ब्यूटीफुल हूँ और इंटेलीजेंट हूँ।
रानी बिटिया पीहू जी द्वारा बनाया गया चित्र। |
+ + + + + + + + +
वस्तुतः यहाँ नामों पर विस्तार से विमर्श करना मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरे मन में तो मेरे द्वारा सुनी हुई, मुझे बताई गई या मेरे द्वारा कहीं पढ़ी हुई, यह बातें हैं कि नाम सामाजिक और आर्थिक हैसियत का भी प्रकटीकरण करते हैं।
मुझे ज्ञात है कि मेरी अम्मा की मेधा व्यावहारिक रूप से बहुत प्रखर थी, वे बहुत धर्म-प्राण थीं और अति संवेदनशील थीं। मुझे उनकी एक सीख याद आ रही है। वह नाम से जुड़ी है इसलिए यहाँ प्रासांगिक है।
छुटपन में मैंने पूछा होगा कि किसी के नाम बड़े तो किसी के बहुत छोटे क्यों होते हैं? उनका कहना था कि "कई कारण होते हैं पर नाम पर आर्थिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है ।इसलिए अपने यहाँ यह कहावत चल पड़ी है–
"लक्ष्मी (धन) के तीन नाम। परसू, परसोले, परशुराम।"
"ग़रीब, मज़दूर 'परशुराम' होते हुए 'परसू' कहलाने लगता है, थोड़ी अच्छी मध्यम आर्थिक स्थिति पर यही 'परशुराम' नाम वाला व्यक्ति 'परसोले' कहलाता है जबकि समृद्ध 'परशुराम' को 'परशुराम'ही कहा जाता है। किसी की हिम्मत नहीं कि उसे 'परसू' या 'परसोले' कहकर पुकारे।"
वाह अम्मा वाह ! आपको कोटिशः नमन।
+ + + + + + + +
भारतीय परिदृश्य में प्राचीन काल में कमज़ोर आर्थिक, सामाजिक हैसियत वाले लोगों के नाम अक़्सर 'ऊन वाचक' मिलते हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपने पात्रों के नामकरण में इस स्थिति को भलीभाँति प्रस्तुत किया है।
'ऊन' का अर्थ न्यून, कम, घट या हीनता होता है। हिंदी की गिनती में उनतीस, उनचालीस, उनसठ, उनहत्तर आदि में यही स्थिति लागू होती है। नामों के संदर्भ में 'ऊन' का भाव कम, घट, न्यून, हीनता, कमतरता और अशुभता से होता है।
कतिपय लोगों का कहना है कि कुछ लोगों ने कुछ लोगों को विद्वेष पूर्वक ऊनवाचक नाम दिए हैं या इनके द्वारा इनके अच्छे नामों को भी जानबूझकर हीनता बोधक कर दिया जाता रहा है। जबकि कुछ का कहना है कि ऐसा नामकरण अन्धविश्वासों के आधार पर स्वयं संबंधितों के माता-पिता द्वारा किया गया है। क्योंकि कुछ माँ-पिता को लगता है कि यदि बच्चे का नाम अशुभ या हीनता बोधक रख दिया जाय तो उसके जीवन की बुरी बलायें टल जाती हैं। कहीं-कहीं ऐसी प्रथा है कि यदि किसी दम्पती के पुत्र अल्पायु या बाल्यावस्था में ही मर जाते हैं तो उसके अगले पुत्र को जन्म के छठवें दिन (छटी के दिन ) एक टोकरी में रखकर विधि-विधान से देव-पूजा करके बच्चे को टोकरी सहित आँगन में गोलाई में घसीटते हैं, तत्पश्चात जान-बूझ कर उसका नाम हीनता बोधक घसीटे, कढ़ोरे या खचेरे रख देते हैं ताकि बच्चे को लंबी उम्र प्राप्त हो सके।
एक प्रत्यक्ष तथ्य यह भी है कि कुछ नामों का मुख-सुख के कारण भी लघुकरण किया जाता है। इस क्रिया से कुछ नाम तो अशुभ नहीं हो पाते हैं जबकि कुछ अशुभ हो जाते हैं।
यह सब सही हो सकता है, है पर मैं पुनः अपनी बात पर आता हूँ कि नाम सामाजिक और आर्थिक हैसियत का भी प्रकटीकरण करते हैं।
उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के ग्राम छौना के बाबा (साधु) रामदास जी ने पाया कि उनके आसपास नाम बहुत ही हीनता बोधक हैं। सो उनके मन में एक ओर अशुभ का दर्द तो दूसरी ओर "यथा नाम तथा गुणः" की चिंता उपजी, इसलिए उन्होंने ऊन वाचक नामों के प्रति लोगों को एक लोक भजन के माध्यम से आगाह किया –
"बिगार लई संतान तुमनें
धर धर नाम बिदोरे।
धरते मटरू, चटरू बलुआ
डरु, डरेले, झबला, कलुआ
फटू, फदाली, रंपे, ललुआ
टुइयाँ, टिकू, टिकोले। बिगार लई....
सरिया, मरिया औ चिंटाई
फसू, फसोले औ निन्नाही
रटी, रबूदे और मिरचाईं
मोहदू, मगन, कढ़ोरे। बिगार लई.....
गुटईं, छिंगे, कमल, कथूले,
दुजू, तिजू, गढू, मनफूले;
गेंदे, गप्पू, गपईं, गपोले
भोले, बदलू लटू, बहोरे। बिगार लई....
ऐसे गंदे नाम धरते हैं,
नाम के ऊपर गुण परते हैं;
रामदास शिक्षा करते हैं
शुद्ध सरल शुचि नाम धरौ तुम
सुनो बुद्धि के भोरे। बिगार लई......
(मुझे यह लोक भजन उपलब्ध कराने वाले अग्रज, हिंदी, अंग्रेज़ी, इतिहास, धर्म और समाज के गम्भीर अध्येता लल्ला महेंद्र प्रताप सिंह का मत है कि इसमें यत्किंचित पाठ भेद हो सकता है।)
मेरे श्वसुर साहब परम् संत (स्व.) चौधरी गरीबदास सिंह के स्वभाव में दो बातें बड़ी शिद्दत से रची-बसी थीं–बालिका शिक्षा और बच्चों का सुंदर सार्थक नाम करण। इसलिए उन्होंने अपने घर-परिवार, गाँव-मुहल्ला, क्षेत्र, ज़िला, संगी-साथी, मिलने-जुलने वालों में सबको इन दो बातों के लिए सफलता पूर्वक प्रेरित किया। बाबू जी में शौर्य, वीरत्व, निडरता जैसे ऊर्जावान भाव कूट-कूट कर भरे थे; इसलिए उनके सोचे, सुझाये व्यक्ति-नामों में भी इनकी स्पष्ट छाप है।
काका हाथरसी को लें। उन्होंने अपने हास्य-काव्य में दर्शाया कि समाज में यथा नाम तथा गुणः के प्रतिकूल स्थिति भी मिलती है–
"नाम – रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने,
बाबू सुंदर लाल बनाये ऐंचकताने।
कहँ ‘काका' कवि, दयाराम जी मारें मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ भिखारीदास के मिल चल रहे आठ।
मिल चल रहे आठ, करम के मिटें न लेखे,
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे।
कहँ ‘काका' कवि, दूल्हेराम मर गये कुँवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे।
चतुरसेन बुध्दू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध।
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते।
कहँ ‘काका', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं।
तेजपाल जी भोथरे, मरियल से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन – भर वंशी न बजाई।
कहँ ‘काका' कवि, फूलचंद जी इतने भारी,
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी।
खट्टे – खारी – खुरखुरे मृदुला जी के बैन,
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन।
चिलगोजा से नैन, शांता करतीं दंगा,
नल पर नहातीं, गोदावरी, गोमती, गंगा।
कहँ ‘काका' कवि, लज्जावती दहाड़ रही हैं,
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं।
काका जी ने यह जो लिखा है, कदाचित सही भी है। पर ऐसा विरोधाभास क्यों होता है ? . . . माता-पिता अपने बच्चे के भविष्य का जो स्वरूप अपने मानस में गढ़ते हैं प्रायः उसी के अनुरूप नामकरण करते हैं। पर बच्चे का जब विकास होता है तब उस पर पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के साथ-साथ भौगोलिक परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है परिणामतः कई बच्चे माता-पिता द्वारा कल्पित किये गए स्वरूप के अनुसार नहीं बन पाते हैं जिससे ऐसी विरोधाभासी स्थितियाँ बनती हैं।
+ + + + + + + +
बात नाम की हो रही है तो सकारण एक चर्चित नाम (यद्यपि यह व्यक्ति नाम नहीं है पर नाम तो है) का ज़िक्र कर रहा हूँ– कोरोना अर्थात कोविड–19, यह ऐसा नाम जो ऊन वाचक तो नहीं हुआ दून वाचक होता गया है–घातक और घातक।
अभी "तुम डाल डाल हम पात पात।" की स्थिति है। कोरोना रूप बदल रहा है लेकिन हमारे चिकित्सा-वैज्ञानिक भी उसका तोड़ ढूँढ़ने में निरन्तर सफल हो रहे हैं।
यहाँ कोरोना नाम की चर्चा इसलिए भी कि 86 दिन बाद आज 15 जुलाई 2021 को सुबह मुझ दम्पती को कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड का दूसरा डोज़ लगा।
कोरोना वैक्सीन की चर्चा से याद आया। . . . एक दिन मेरी छोटी पोती पीहू जी आकर मेरी गोदी में गुमसुम सी बैठ जाती है। मैं प्यार से पूछता हूँ– "क्या बात है रानी बिटिया?"
"बब्बा जी मुझे लगता है कि मैं अनपढ़ ही रह जाऊँगी।"
"क्यों?"
"ये कोरोना स्कूल ही नहीं खुलने दे रहा है।"
रानी बिटिया की इस बात पर मैं हँसने लगता हूँ। मुझे हँसता देख वह भी हँसने लगती हैं।
. . . अब मैं बिटिया जी को समझाता हूँ कि "कोरोना बार-बार रूप बदल कर हमारी परीक्षा ले रहा है। अच्छा यह कि हमारे चिकित्सा-वैज्ञानिक उसकी चाल को तुरंत पकड़ लेते हैं तदनुसार अपुन लोग आवश्यक सावधानियाँ बरतने लगते हैं। . . . देखो कई वैक्सीन बन गयी हैं। बब्बा जी और दादी जी को वैक्सीन की दोनों डोज़ लग गईं हैं, इसी तरह पूरे वर्ल्ड (world) में बहुत से लोगों को वैक्सीन लग गई हैं, अभी भी लग रही हैं। बच्चों के लिए भी वैक्सीन बन गयी हैं। कुछ ही दिनों में सब लोग को वैक्सीन लग जायेगी। फिर हम सब लोग कोरोना की गिरफ्त से, इसके भय से बाहर निकल आएँगे फिर स्कूल लगने लगेंगे। और फिर हमारी बिटिया जी भी पहले की तरह स्कूल जाने लगेगीं, है न? हाँ, लेकिन अभी भी सबको वैक्सीन लग जाने के बाद भी काफी दिनों तक हम सब लोगों को कोरोना-नियमों का पालन अवश्य करते रहना है।"
रानी बिटिया– "हा हा हा...अब कोरोना भाग जाएगा।"
रानी बिटिया जी भाग कर अंदर चली जाती हैं। मैं आज की यह डायरी पूर्ण करता हूँ। इति शुभम्।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- लघुकथा
- चिन्तन
- सामाजिक आलेख
- पुस्तक समीक्षा
- कविता
- कहानी
- कविता - क्षणिका
- बच्चों के मुख से
- डायरी
-
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 001 : घर-परिवार
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 002 : बचपन कितना भोला-भाला
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 003 : भाषा
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 004 : बाल जीवन
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 005 : वानप्रस्थ
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 006 : प्रतिरोधक क्षमता
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 007 – बाल मनोविज्ञान
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 008 – जीत का अहसास
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 009 – नाम
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 010 – और चश्मा गुम हो गया
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 011 – इकहत्तरवाँ जन्म दिवस
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 012 – बाल हँस
- आर. बी. भण्डारकर – डायरी 013 – ओम के रंग!
- आर. बी. भण्डारकर–डायरी 014 – स्वामी हरिदास महाराज
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- शोध निबन्ध
- बाल साहित्य कविता
- स्मृति लेख
- किशोर साहित्य कहानी
- सांस्कृतिक कथा
- विडियो
-
- ऑडियो
-