मोय आराम कहाँ
डॉ. आर.बी. भण्डारकर
सावन का महीना है। सुबह के 9 बज गए हैं। आज रात से ही मूसलाधार बारिश हो रही है। इसलिये आज ठण्ड-सी भी हो गयी है।
एक बड़े शहर में अपने ख़ुद के घर में रह रहे एक मुलाज़िम मदन बाबू ने आज ऑफ़िस जाना निरस्त कर दिया है; वे रोज़ स्कूटर से ऑफ़िस जाते हैं न; इसलिये . . . उन्होंने अवकाश का प्रार्थना पत्र ई मेल से भेज दिया है।
इसी शहर की इसी कॉलोनी में रहने वाले तथा प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे युवा विजय भी आज कोचिंग नहीं जा रहे हैं। कैसे जायें, सड़क पर तो इतना अधिक पानी है कि उनकी एक्टिवा के तो पूरे पहिए ही पानी में डूब जायेंगे . . .। उँह, क्या विशेष फ़र्क़ पड़ता है, एक दिन कोचिंग न भी जाएँ तो, वैसे भी अब तो रिवीजन चल रहा है।
इधर एक गाँव में एक मेहनत-कश कृषक खचेरे, घर के दरवाज़े तसला-फावड़ा लिए बेचैन से खड़े दिख रहे हैं . . .। पत्नी को आवाज़ देते हैं, “अरे जल्दी निकलो भाई, कितनी देर पहले रमुआ बता गया था कि अपने खैराऊ की मेड़ फूट गयी है।”
पत्नी बोलती है, “थोड़ा तो ठहरो, मैंने तो पूरी बाँहों का ब्लाउज पहन लिया है, तुम्हारे लिए बंडी ढूँढ़ रही हूँ, ठण्ड है न।”
“जेठी, अगर हम इसी प्रकार यहीं ठण्ड मनाते रहे तो उधर खेत की सारी मिट्टी बह जाएगी . . . काहे की ठण्ड? खेत पर जाकर फावड़ा चलाएँगे तो नेक देर में ठण्ड दूर खड़ी दिखाई देगी।”
‘जेठी’ आ जाती है। दोनों गेंहू की नरई की खुइयाँ ओढ़कर बरसते पानी में ही, रास्ते में पिंडली तक भरे पानी में जल्दी-जल्दी खेत की ओर निकल पड़ते हैं।