बहोरीलाल
डॉ. आर.बी. भण्डारकर
वर्षा की कमी, कृषि के पुराने तरीक़े आकस्मिक युद्ध जैसे अनेक कारणों से सुखपुर में खाद्यान्न संकट आ पड़ा है। संवेदनशील राज्य की ओर से अन्न आपूर्ति के तमाम उपायों के साथ-साथ समस्या-समाधान के एक विकल्प के रूप में यह मार्मिक सुझाव भी दिया जा रहा है कि नागरिक सप्ताह में एक दिन निराहार व्रत रखें, यह सेहत के लिए लाभकारी होता है, राज्याधीश जी स्वयं ऐसा कर रहे हैं।
ग़रीब को तो वैसे ही भरपेट भोजन के लाले पड़े रहते हैं। इस अन्नाभाव से उनकी स्थिति और भी दुश्वार हो गयी है।
मध्यम वर्गीय परिवार सदैव मोटा-झोटा अन्न, पारंपरिक दालें, स्थानीय शाक-भाजी खाकर अपना गुज़ारा करते हैं, इसलिए इस खाद्य-संकट के समय उनकी स्थिति “न सावन सूखे न भादों हरे” की सी है।
जगत लाल लगभग सीमांत कृषक हैं। उनके घर में वृद्ध माँ के अतिरिक्त पत्नी और तीन बेटे हैं। तीन बेटियाँ हैं; तीनों बेटियों का ब्याह हो गया है, सो वे सब अपनी अपनी ससुराल में है। अपनी मेहनत-कश आदत के कारण ही जगत लाल सदैव अपने परिवार का सामान्य भरण-पोषण, लालन-पालन बड़े इत्मीनान से करते रहे हैं, कर रहे हैं; पहले नौ सदस्यीय और अब छह सदस्यीय परिवार का। विशेष बात यह कि जगत लाल अपने दम और अपनी पत्नी राम सखी की दम पर घर पर अन्य समृद्ध किसानों की तरह ही एक जोड़ी बैल, एक दुधारू भैंस और दो गायें भी रखे हुए हैं। श्यामा गौ ने तो अभी पिछले महीने ही एक सुंदर बछड़ा जना है। यह बछड़ा सबके लिए खिलौने जैसा है, सबकी आँखों का तारा है।
जगत लाल के सुखी परिवार में 6 माह पहले एक बड़ी विपदा आ पड़ी; उनका बड़ा पुत्र गोपी सख़्त बीमार पड़ गया। तब से वह बीमार ही चल रहा है। कारण यह कि एक तो आसपास कोई बड़ा सरकारी अस्पताल है नहीं, दूसरा कारण है अशिक्षा। अशिक्षा के कारण ही लोग किसी भी बीमारी को या तो भूत-प्रेत का साया मान कर स्थानीय घुल्ले से झाड़-फूँक कराते हैं या फिर किसी स्थानीय वैद्य की सलाह से कोई काढ़ा या कोई चूरन, चटनी लेते रहते हैं। इतने पर भी ठीक न होने पर बीमारी को भाग्य का विधान मान लेते हैं।
गोपीलाल के मामले में भी यही हो रहा है। बीमारी न तो झाड़-फूँक से ठीक हो पा रही है न ही वैद्य जी के काढ़े से। हाँ, गेंहूँ की रोटी, मूँग और मोठ की दाल, हरी सब्ज़ियाँ, दूध, दही, घी, दाख जैसे सुपाच्य और पौष्टिक भोजन नियमित रूप से मिलते रहने से रोगी की सेहत अवश्य ही कुछ सम्हली हुई है।
परसों जगत लाल के साले का बेटा प्रभुलाल आया था। वह सबसे नज़दीक के क़स्बे में रहकर हाई स्कूल में पढ़ रहा है। गोपीलाल की हालत देख कर बोला कि फूफा जी भैया को एक बार सरकारी अस्पताल में तो दिखा लो।
जगत लाल बोले, “बेटा, कैसे जाएँ इतनी दूर? फिर कोई जान-पहचान भी नहीं किसको, कैसे दिखायेंगे?”
प्रभुलाल ने कहा, “आप तो भैया को लेकर आ जाना फूफा, मैं साथ में चला चलूँगा।”
प्रभुलाल चला गया। बात आयी गयी हो गयी। एक दो महीने बीत जाने के बाद एक दिन जगतलाल, उनकी पत्नी राम सखी और पड़ोसी लटोरी लाल बाहर चबूतरे पर बैठे थे।
राम सखी बोली, “देखो लला लटोरी, मेरा भतीजा कब कह गया था कि भैया को एक बार सरकारी अस्पताल में दिखा लो। मैं कह कह कर थक गयी पर तुम्हारे जे भैया हमारी बात एक कान से सुनते हैं दूसरे से निकाल देते हैं। वैद जी के काढ़े सें मोड़ा की हालत नेकऊँ नहीं सुधर रही है।”
लटोरी लाल ने अपनी बात कही, “भौजी तुम बेकार में लगी हो। सरकारी अस्पताल में डाक्टर सूई लगा देते हैं, जिससे बहुत दर्द होता है। एक बात और, किसी के एक बार सूई लग गई तो फिर उसे वैद्य की या दूसरे किसी प्रकार की कोई दवा कभी भी फायदा नहीं करती, बार बार सूई ही लगवानी पड़ती है . . .। हाँ और सुनो भौजी; घबराने की कौनऊँ जरूरत नहीं है, गोपी को कछू बड़ी बीमारी नहीं है, वैद्य जी कह रहे थे विषम ज्वर है, अगर तुम साठ दिन लाँघने करा दो तो बच्चा ठीक हो जाएगा। तुम मानती नहीं हो, वाय दरिया, दाख, दूध दएं ही बनी रहती हो।”
राम सखी ने लटोरी से अपनी बात के समर्थन की उम्मीद की थी पर यहाँ तो दाव उल्टा ही पड़ा; वह मन मसोस कर चुप हो गई।
जगत लाल के तीन पुत्र हैं। बड़ा गोपीलाल; 18-19 साल का होगा, बेचारा बीमार रह रहा है। दूसरा है बहोरीलाल 13-14 साल का है। पशु चराता है; कभी-कभी खेती-बाड़ी के काम में माता-पिता का सहयोग भी करता है। छोटा है छोटेलाल। उम्र 7 वर्ष है। घर के सब लोग उसे छोटू कहते हैं। दिन भर घर पर खेलता रहता है, कभी गुल्ली-डंडा तो कभी पिलिया। आजकल तो श्यामा के बछड़े के साथ खेलता रहता है। मन होने पर कभी-कभी माता-पिता के साथ खेत पर भी चला जाता है। एक बार गया तब उतरता चौमासा था, इसलिए उसने खेत की मेंड़ों, कुलियों, झकूटों में ढूँढ़ कर गिल गोंटिया उखाड़-उखाड़ कर खूब खायीं। बाजरे की बालें अधपकी हो रही थीं, अपनी माँ से उन्हें तुड़वाया और फिर उन्हें भून-भून कर उनसे निकला नरम-नरम बाजरा चबा-चबा कर झिक कर खाया। इन सबसे जब फ़ुर्सत मिली ही तब तक पानी बरसने लगा था तब उसने खरौआ के पानी में बड़ के पत्ते की नाव चलाई थी। एक बार गया तब खेतों में रबी की फ़सल थी। चने का लहलहाता खेत देखकर उसे याद आया कि वह अपने साथ हरी मिर्च, हरा धनिया और नमक की सुस्वादु चटनी लाया है। घुस गया निर्भय होकर खेत में। चने की भाजी चटनी से ख़ूब खाई फिर उसने देखा कि एक कुलिया में जरिया के पौधे (बेरी के छोटे-छोटे पौधे) बेरों से लदे हैं, उसने बेर तोड़-तोड़ कर ख़ूब खाये।
एक बार गया था तब बूँट और होलों का मौसम था। उसने माँ से ज़िद करके बूँट उखड़वाये और जी भर कर खाये। पिता जब काम में से समय निकाल कर कलेऊ करने नीम के पेड़ तले आये तो उसने होले भुनवा कर खाये। फिर नीम के पेड़ पर झूला झूला। छोटू जब भी खेत पर गया तब माता-पिता के साथ गया और शाम को माता-पिता के साथ ही घर आया। मस्त बचपन। इन बाल-गोपालों का ऐसा बचपन देख कर ही तो सुभद्रा जी को याद आती है बचपन की:
बार बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी।
गया, ले गया तू बचपन की, सबसे मस्त ख़ुशी मेरी।
चिंता रहित खेलना खाना, वह फिरना निर्भय स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद।
प्रश्न उठता है यह छोटू स्कूल क्यों नहीं जाता?
गाँव में स्कूल ही नहीं है।
रतवा केवल पाँच कोस दूर ही तो है, वहाँ तो स्कूल है। वहाँ क्यों नहीं जाता?
कैसे जाये! बीच में कितना बड़ा नाला पड़ता है, उसमें गिर पड़ने, चौमासे में बहने-बहाने का डर जो है। न भैया न! मैं नहीं भेजूँगा अपने बेटे को, इतनी दूर पढ़ने। मुझे नहीं चाहिए ऐसी पढ़ाई, बढ़ाई।
गोपी बीमार रहता है। उसे हमेशा जीर्ण ज्वर रहता है। भूख कम लगती है। हल्की खाँसी होती है। कभी-कभी छाती में बाँयी तरफ़ दर्द होता है। वज़न गिरता जा रहा है। ज्वर के लिए वैद्य जी द्वारा बताया हुआ काढ़ा पिलाते हैं। खाँसी के लिए कटैया के फूल खिलाते हैं। छाती में दर्द होने पर घुल्ला के कहे अनुसार एक लोटा पानी उसार कर बाहर फेंक आते हैं। वैद्य जी के बताए अनुसार साँभर का सींग घिस कर उसका लेप लगा देते हैं। अभी पैरों में टीभन पड़ने पर बड़े वैद्यजी ने सतोपिलादि चूर्ण शहद के साथ चटाने को कहा था सो वह दे रहे हैं।
कुछ फ़ायदा हुआ?
बहुत . . . जब से चूरन दे रहे हैं तब से बुख़ार में बहुत राहत है। खाँसी नाम मात्र को रह गयी है। और हाँ, भूख भी कुछ बढ़ी है।
कितना भोला है इनका जीवन। बीमारी में आराम मिले या न मिले स्वास्थ्य थोड़ा भी सुधरता जान पड़ता है तो इन्हें लगने लगता है कि रोगी ठीक हो रहा है। नादानी ऐसी कि ‘'सूई लगने से दर्द होता है। एक बार सूई लग जाये तो फिर आवश्यकता पड़ने पर और कोई दवा काम नहीं करती, सूई ही फिर लगवानी पड़ती है।’ सचमुच इन लोगों की ऐसी ही सोच के कारण बीमारियाँ फैलती रहती हैं। कई बार ऐसे ही कारणों से संक्रामक बीमारियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं और लोग इन्हें वंशानुगत मान बैठते हैं। माना कि देश में अभी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार अपेक्षाकृत कम है पर प्रयत्न चल रहे हैं स्वास्थ्य सेवाओं का निरंतर विस्तार हो रहा है। ऐसे में जो सुविधाएँ हैं उनका लाभ तो लिया जाना चाहिए। लेकिन अधिकांश लोग आज भी अपनी अज्ञानता या अंधविश्वासों के कारण नहीं लेते हैं इनका लाभ। नतीजन सांघातिक बीमारियाँ बढ़ती, पनपती रहती हैं।
शिक्षा के मामले में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। स्कूल दूर है तो कहा जाता है कि डर है इसलिए “नहीं चाहिए ऐसी पढ़ाई-बढ़ाई।” इन लोगों को यह भान ही नहीं है कि शिक्षा कितनी महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन समय में शिक्षा के लिए बालको को निर्भय होकर, घर परिवार से दूर आश्रमों, गुरुकुलों में भेजा जाता था।
समय बीतता रहता है; जीवन अपनी गति से चलता रहता है। गोपी बीमार है। जगत लाल के घर-हार के सब काम चल रहे हैं। बीमार बेटे की चिंता तो है पर करें क्या? जबसे उसे पैरों में टीभन (दर्द) पड़ना शुरू हुआ है तब से बहोरीलाल को ज़िम्मा सौंप दिया गया है समय-समय पर गोपी के पैर दबाने का। माता-पिता की आज्ञा है फिर बड़े भैया के प्रति प्रेम भी। बहोरी बख़ूबी निभा रहा है अपना कर्त्तव्य।
पशु चराने जाना। समय निकाल कर दिन में तीन-चार बार गोपी के पैर दबाना, यह सब अब दिनचर्या हो गयी है, बहोरीलाल की। बहोरी जब पैर दबाते हैं गोपी के, तब गोपी कभी काढ़ा पी रहे होते हैं, कभी उनकी माँ दाख (मुनक्का) में काला नमक रख कर फिर आग पर सेंक कर उन्हें खिला रही होती हैं, तो कभी वे उसे दूध-दलिया खिलाती हैं। शाम को जब बहोरी गोपी के पैर दबाते हैं तभी माँ तुरैया की सब्ज़ी और गेंहू की चपाती लेकर आती हैं, “बहोरी थोड़ा रुको पहले उसे तुरैया-फुलकिया खा लेने दो, फिर पैर दबाना।”
बहोरी रुक जाते हैं।
गोपी तुरैया फुलकिया खाते हैं, बहोरी टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। मन ही मन कहते हैं, ‘भैया बीमार हैं न। ऐसा अच्छा खाना खाएँगे तो जल्दी ठीक हो जायेंगे।’
कहा जाता है कि बीमार लोगों को दूध आसानी से पचता नहीं है इसलिये वैद्य उन्हें ‘उफना दूध’ देने की सलाह देते हैं। माँ तो माँ होती है। वैद्य जी की सलाह के अनुसार राम सखी ‘बिला नागा’ अपने रोज़ के कामों में से समय निकाल कर सवेरे-सवेरे एक डबुल्ला (कुल्हड़) को कंडों की तेज़ आँच में रख देती है, जब वह गरम होकर लाल हो जाता है तो उसे चिमटे की मदद से आँच में से निकाल कर साफ़ थाली में रख देती हैं फिर उसमें दूध डालती हैं कुल्हड़ में से दूध उफ़न कर थाली में गिरता जाता है। यही होता है उफना दूध। राम सखी इसमें धागे वाली मिश्री, चार पाँच दाख डाल कर गोपी को पिलाती हैं।
जगत लाल की इतनी हैसियत तो है नहीं कि तीनों बच्चों को रोज़ दाख, दूध-दलिया, हरी सब्ज़ियाँ, गेहूँ की रोटी खिला सकें। वे सब तो रोज़ सर्दियों में बाजरा की रोटी और गर्मियों में चना-बेझर (जौ) की रोटी खाते हैं साथ ही मौसम के अनुसार चना, अरहर, मूँग, उड़द आदि की दालें, कढ़ी चेंच, नुनियाँ, पेंहती या चना की भाजी की तरकारी खाते हैं। दूध सबको बारी-बारी से ही मिल पाता है क्योंकि दूध से घी बनता है और इस घी से प्राप्त रुपयो से ही घर-गृहस्थी का ख़र्च चलता है।
कोई भी स्थिति, परिस्थिति हो, यदि वह अल्प कालिक या दो-चार दिन के लिए ही हो तो अपवाद छोड़कर उसका प्रभाव मानव मन कम ही पड़ता है पर यही स्थिति, परिस्थिति यदि दीर्घकाल तक बनी रहे तो इसका प्रभाव मन पर, दिल-दिमाग़ पर अवश्य ही पड़ता है। इससे सोच बदलती है, विचार धारा भी बदलने लगती है। लंबे समय तक यदि कुछ मनमाफ़िक नहीं हो पाता है, नहीं मिल पाता है तो अभाव जैसा लगने लगता हैं। काव्य संग्रह दिशाएँ मौन में संकलित ‘अभाव’ कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं:
“अभाव ग्रस्त जीवन
मिटाता आत्म विश्वास, आत्म-सम्मान,
संयम, विवेक और
स्वाभिमान।”
बहोरीलाल महीनों से अपने भाई पैर दबाते हुए उस को रोज़ स्वादिष्ट, पौष्टिक खाद्य पदार्थ खाते देख रहा है। वह सोचने लगा है कितने भाग्यवान है भैया इतना बढ़िया खाने को मिलता है और काम भी टके का नहीं करना पड़ता है। मैं हूँ कि रोज़ दिन भर चौपाये चराने में खटूँ फिर तीन-चार बार भैया के पैर दबाऊँ; ऐसे स्वादिष्ट पदार्थ मुझे खाने को क्यों नहीं मिलते, मुझे भी मिलने चाहिए।
किसी के भी मन में जब ऐसे विचार आने लगते हैं तो वह उचित-अनुचित का निर्णय नहीं कर पाता है, उस पर अपनी लिप्सा भारी पड़ने लगती है। कहा गया है न—‘नींद न जाने टूटी खाट; भूख न जाने जूँठा भात।’
“क्या किया जाए, क्या किया जाए?” बहोरीलाल की भावनाएँ अनियंत्रित हो चलीं। फिर उसके मन में आता है कि माता-पिता तो हम तीनों भाइयों को समान रूप से प्यार करते हैं। भैया को यह सब अतिरिक्त इसलिए मिलता है क्योंकि वह बीमार रहते हैं . . .॥ओह! अगर मैं भी बीमार रहने लगूँ तो मुझे भी यह सब मिला करेगा।
हाँ, यही ठीक रहेगा।
अब बहोरीलाल रोज़ ईश्वर से, आसपास के अपने देवताओं से प्रार्थना करने लगे हैं कि हे भगवान मुझे भी जल्दी भैया की ही तरह बीमार कर दो।
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