आर. बी. भण्डारकर–डायरी 014 – स्वामी हरिदास महाराज

01-03-2022

आर. बी. भण्डारकर–डायरी 014 – स्वामी हरिदास महाराज

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

दिनांक 17 जनवरी 2022

यह परम् पिता प्रदत्त जैविक घड़ी का ही चमत्कार है कि प्रतिदिन प्रातःकाल प्रायः ठीक समय पर, एक ही समय पर उठ जाता हूँ। 

अनिवार्य दैनिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के बाद बैठक में बैठकर कुछ लिखने का उपक्रम कर रहा हूँ। पत्नी जी चाय लाती हैं। चाय वही . . . कोरोना कालीन काढ़ा कम (cum) चाय। 

चाय पीकर लगा हाँ, अब ठीक है . . .। पिछले दिनों की डायरी में ग्वालियर में आयोजित तानसेन समारोह 2021 का ज़िक्र किया था . . . सर्व विख्यात है कि संगीत सम्राट तानसेन को संगीत की शिक्षा सर्वप्रथम स्वामी हरिदास महाराज ने दी। कौन थे स्वामी हरिदास महाराज? . . .

मैंने स्वामी हरिदास महाराज का नाम सबसे पहले बचपन में बालाजी (मिहोना) के मेले में सुना था। भक्त हृदय लोग एक भजन गाते थे:

“बाबा हरिदास महाराज, मेला खूब भरौ बाला जी कौ।”

भारत के मध्‍यकालीन सांस्‍कृतिक इतिहास में विभिन्न संतों, सामाजिक-धार्मिक सुधारकों द्वारा समाज में भक्ति और सामाजिक सुधार की दृष्टि से चलाए गए भक्ति आन्दोलनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस भक्ति धारा ने अपने आन्दोलनों की शक्ति और सामर्थ्य से देश की निर्जीव-सी हो रही शिराओं में नए जोश, उत्साह के रक्त का संचार किया। 

इन भक्ति आन्दोलनों का उद्भव दक्षिण भारत में अलावरों और नायनरों से हुआ। बाद में लगभग 800 ई. से 1700 ई. के बीच इनका विस्तार उत्तर भारत सहित अनेक एशियाई देशों में भी हो गया। 

इन सामाजिक परिवर्तनकारी विविध भक्ति सम्प्रदायों में अद्वैत सम्प्रदाय (विशिष्टावाद) स्वामी शंकराचार्य, श्री सम्प्रदाय (विशिष्टाद्वैतवाद) स्वामी रामानुजाचार्य, ब्रह्म सम्प्रदाय (द्वैत वाद) स्वामी मध्वाचार्य, हंस सम्प्रदाय (सनकादि सम्प्रदाय, द्वेताद्वेत) स्वामी निम्बकाचार्य, वल्लभ सम्प्रदाय (शुद्धाद्वैतवाद) स्वामी वल्लभाचार्य, गौड़ीय सम्प्रदाय (भेदाभेदवाद) स्वामी चैतन्य महाप्रभु, सखी सम्प्रदाय (हरिदासी सम्प्रदाय) स्वामी हरिदास महाराज, रामदासी सम्प्रदाय स्वामी रामदास, राधावल्लभ सम्प्रदाय गोस्वामी हित हरिवंश, वारकरी सम्प्रदाय स्वामी पुंडलिक प्रमुख हैं। विद्वानों का मत है कि सखी संप्रदाय (हरिदासी सम्प्रदाय) निम्बार्क मत की ही एक शाखा है जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास महाराज ने की थी।

स्वामी हरिदासजी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्री राधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री आशुधीर जी और माँ का नाम गंगादेवी था। कहा जाता है कि इनके पिता अलीगढ़ जनपद की कोल तहसील के निवासी थे पर वे अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से अनेक तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात् ब्रज आकर एक गाँव में बस गए थे। 

स्वामी हरिदास महाराज को ललिता सखी का अवतार कहा जाता है। स्वामी जी के प्रेम भाव और हृदय से समर्पण ने यह बात सिद्ध भी होती है। 

स्वामी हरिदास महाराज को यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त इनके पिता ने ही इन्हें वैष्णवी दीक्षा प्रदान की। युवावस्था आने पर माता-पिता ने इनका विवाह सुंदर, सुशील और सर्वगुणसम्पन्न कन्या हरिमति से कर दिया। लेकिन हरिदास जी तो गृहस्थ जीवन से पूर्णतः विरक्त थे; उनकी आसक्ति तो केवल और केवल अपने आराध्य श्यामा-कुंजबिहारी के प्रति थी; अस्तु पति को गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर पतिव्रता हरिमति ने स्वयं को पति की साधना में विघ्न मानकर योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया। उनके पवित्र पातिव्रत्य से उनका तेज, पति स्वामी हरिदास के चरणों में लीन हो गया। 

प्रायः ब्रज क्षेत्र—वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करने वाले सखी सम्प्रदाय के भक्त स्वयं को श्रीकृष्ण की सखी मानकर उनकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। 

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में स्वामी हरिदास महाराज वृन्दावन आ गए और निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाकर सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहने लगे। स्वामी जी का कंठ बड़ा मधुर था। उन्हें संगीत में विशेष रुचि थी। उन्होंने श्री बांकेबिहारीजी महाराज में प्रिया-प्रियतम की युगल छवि प्रतिष्ठित की। सखी सम्प्रदाय में श्यामा-कुंजबिहारी की नित्य की आराधना का मुख्य आधार संगीत है। माना जाता है कि उनके रास-विलास से ही संगीत की अनेक राग-रागनियाँ उत्पन्न होती हैं। स्वामी हरिदास महाराज का संगीत के प्रति अगाध प्रेम था। उनके इसी संगीत प्रेम के कारण बेहट के रामतनु संगीत सम्राट तानसेन बन सके। 

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ओह! मेरे नन्हे दोस्त आ रहे हैं; वह देखो सीढ़ियों से उतरते आ रहे हैं—मिट्ठू जी, पीहू जी और ओम भैया जी . . .। अब तो इनकी ही बातें सुननी चाहिए, बड़ी रसभरी, ज्ञान भरी और आनन्द भरी होती हैं। 

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