सूनापन

कपिल कुमार (अंक: 229, मई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

एकमात्र
मैं ही नहींं हूँ, 
दुनिया भर की चीज़ें हैं
जो झेलती हैं
सूनापन— 
 
नदियों के तट पर
रस्सियों से बँधी
रेत में धँसी नौकाएँ
जिनके मल्लाह जा चुके हैं
शहरों को आबाद करने
इन नावों को अकेला छोड़कर।
 
खेतों के रास्ते
गाँव-गाँवों तक जाने वाली
पगडंडियाँ, 
जिनके पथिकों को ले गईं
कंक्रीट की सड़कें
अपनी ओर खींचकर।
 
सिंधु के घाट
जिसके पाँव धोती थी
एक नदी
जो सिमट कर रह गयी है
इतिहास के पन्नों में
उस घाट का रेत।
 
पतझड़ के बाद
पेड़ों की डालियाँ
नई कोंपलें फूटने तक
झेलती हैं सूनापन।
 
पुराने घर में
दीवारों पर टँगे
हलस और हत्थे
जिनको धीरे-धीरे
दीमक चाट रही है।
 
दो लकड़ियों पर
लगी ढेंकली
क्षण-क्षण की ख़बर देती है
कुएँ को, 
कुआँ, कई वर्षों पहले
प्यास से मर चुका है, 
ढेंकली और कुआँ
दोनों झेल रहे हैं—
सूनापन।
 
इस ब्रह्माण्ड में
अनंत, वस्तुयें हैं
जो झेल रही हैं
सूनापन, 
एकमात्र 
मैं ही नहीं हूँ। 

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