रातें

कपिल कुमार (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

क्या, तुमने कभी पत्थर तोड़े हैं? 
उस काली स्याह रात में
जिससे हम समझौता करते हैं
एक गहरी नींद में सोने का
या फिर एक ऐसा नाटक करते हैं
जैसे-हम सोए हों
कि फिर उठना नहीं है
अगली सुबह। 
 
रातें बड़ी तिलिस्मी होती हैं
आद‌मियों को नंंगा नचाती हैं
एक संगीत पर
शांत संगीत पर। 
 
पीड़ाएँ उभरने लगती हैं
वासनाएँ जाग्रत होने लगती हैं
बेचैनी बढ़ने लगती है
कुत्तों को गलियों में भूत नाचते हुए दिखने लगते हैं
चौराहों पर जादू-टोने, टोटके होने लगते हैं। 
 
रातें आश्चर्य और विस्मय से भारी होती हैं
इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए
सदियों से ऐसा चला आ रहा है। 

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