अपने हाथों से
कपिल कुमार
वे लोग
कम पढ़े-लिखे थे
उनका
कभी पैसों से
साक्षात्कार नहीं हुआ।
वे ज़मीनों को
खोदते
और उनमें अपनी रोटियाँ उगाते
अधिकतर समय
उनके हाथों में फावड़े होते।
उन्होंने ज़मीन को अपनी देह का हिस्सा समझा
उस ज़मीन को बेचना
वेश्यावृत्ति से भी है जघन्य कृत्य माना
उस ज़मीन से विस्थापन
मानों माँ को छोड़ देने जैसा था।
उनकी
अगली पीढ़ियाँ
उनसे बहुत ज्यादा-पढ़ी लिखी निकलीं।
उन्होंने उस ज़मीन को खोदकर
रोटियाँ नहीं उगाई
उन्होंने उसे बेचकर
अपने हाथों में उठाई
शराब की बोतले
व्यसन की वस्तुएँ
और
चुना एक ऐसा रास्ता
जिससे सभ्यताएँ पनपती नहीं
बल्कि नष्ट होती है।
मैं अपनी आँखों से देख रहा था
अपनी सभ्यता को नष्ट करते हुए,
लोगों को
अपने ही हाथों से।
1 टिप्पणियाँ
-
बहुत सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाएँ।
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अंकुर
- अनन्त-प्रेम
- अपने हाथों से
- अस्तित्व
- इस दुनिया को इतना छला गया है
- उत्तर-निरुत्तर
- कविता और क्रांति
- क्योंकि, नाम भी डूबता है
- गाँव के पुराने दिन
- गाँव के बाद
- गाँव में एक अलग दुनिया
- चलो चलें उस पार, प्रेयसी
- जंगल
- दक्षिण दिशा से उठे बादल
- देह से लिपटे दुःख
- नदियाँ भी क्रांति करती हैं
- पहले और अब
- प्रतिज्ञा-पत्र की खोज
- प्रेम– कविताएँ: 01-03
- प्रेम– कविताएँ: 04-05
- प्रेम–कविताएँ: 06-07
- प्रेयसी! मेरा हाथ पकड़ो
- फिर मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है
- बसंत और तुम
- भट्टों पर
- भूख
- भूखे पेट
- मनुष्य की अर्हता
- मरीना बीच
- मोक्ष और प्रेम
- युद्ध और शान्ति
- रात और मेरा सूनापन
- रातें
- लगातार
- विदुर—समय संवाद-01
- शहर – दो कविताएँ
- शान्ति-प्रस्ताव
- शापित नगर
- शिक्षकों पर लात-घूँसे
- सूनापन
- स्त्रियाँ और मोक्ष
- स्वप्न में रोटी
- हिंडन नदी पार करते हुए
- ज़िन्दगी की खिड़की से
- हास्य-व्यंग्य कविता
- लघुकथा
- कविता - हाइकु
- कविता-ताँका
- कविता - क्षणिका
- विडियो
-
- ऑडियो
-