मरीना बीच
कपिल कुमारमरीना बीच-1
किसी तेज़ लौ पर रखे पतीले से
जैसे-बार-बार बाहर निकलता है
गर्म पानी
कई घंटों से देख रहा था, मैं
एक स्टेज पर बनी सीढ़ियों पर बैठकर।
एक विशाल, अनंत समुद्र के नीचे
कौन जला रहा है?
इतनी तेज़ आग?
कई लोगों से जानना चाहा
सबका अलग-अलग उत्तर आया
इतनी भीड़ के बावजूद
मैंने पाया—
कई लोग
कई मत
एक समुद्र
मैं और सूखा तट।
सूरज धीरे-धीरे नीचे उतर रहा है
लहरों से उठने वाली तरंगों का
परिवर्तित होता रंग
सफ़ेद से लाल सुर्ख़।
धधकता सूरज ज्यों-ज्यों उतर रहा है
(डूब रहा है) नीचे
समुद्र से बाहर आ रहा है पानी
ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई लाल धधकता आग का गोला
उतरकर जा पहुँचा है समुद्र के नीचे
और बढ़ा रहा है ताप
विशाल पतीली के नीचे।
मरीना बीच-2
उठती लहरों को समंदर
जब धकेलता है तटों की ओर
मुझे आभास हुआ
कर रहा है वह गुज़ारिश
वापस लौट जाओ!
भीड़ कि कर्कश आवाज़
चुभती है उसे।
मरीना बीच-3
दिन के कर्कश शोर में
कई हज़ार लोहों की भीड़ को
समुद्र ने लहरें भेजकर
सुनानी चाही एक कविता।
सभी खोये हुए थे, न जाने कहाँ—
लौट गए वापस
बिना सुने कविता।
भीड़ के लौटने के बाद—
मैं किनारे और तट
रातभर सुनते रहे, एक नई उपजी कविता
जिसे सुना न गया था।
मरीना बीच-4
उसको देखकर लगा
लहरें भी चाहती थी, उसका आलिंगन।
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