क़ीमत

कपिल कुमार (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सरपंच ने कहा , “आप, अपनी लड़क़ी को वापस अपने घर ले जाओ।”

बृजेश ने आपत्ति जताई, “भला, ऐसे-कैसे ले जा सकते हैं। शादी करके आयी है इस घर में।” 

सरपंच बोला, “लड़के ने साफ़-साफ़ मना कर दिया है कि वह लड़की के साथ नहीं रहेगा। लड़के के घर वाले शादी में ख़र्च हुई धनराशि को चुकाने के लिए भी तैयार हैं।” 

बृजेश आक्रोशित हुआ, “सरपंच साहब, आप तो शादी में ख़र्च हुई धनराशि की क़ीमत लगा रहे हैं। अनमोल रिश्तों की क़ीमत तो शून्य लगाई है, आपने।” 

सरपंच ने पूछा, “मैं, कुछ समझा नहीं; रिश्तों की क़ीमत?” 

बृजेश ने थोड़ा शान्त होते हुए कहा, “सरपंच साहब, यदि रिश्तों की क़ीमत नहीं होती तो मैं चालीस लाख रुपये देने के लिए तैयार हूँ। कोई भी अपनी लड़‌की को बीस दिन के लिए हमारे यहाँ भेज दीजिए।” 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
कविता
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
कविता - क्षणिका
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में