प्लास्टिक का प्रहार
पवन कुमार ‘मारुत’
(देव घनाक्षरी छन्द)
सोचूँ सोच-सोचकर संसार समन्दर में,
मानुष मगर मारे मछली मोटी-महीन।
स्वार्थी सताता सारे सीधे-सादे सहचरों को,
समझता स्वयं को ज़ालिम जहान ज़हीन।
पापी परवाह नहीं नेकु जीव-जन्तुओं की,
पटकते पन्नी प्लास्टिक की खुले में महीन।
भूखे भोले जीव जमाने का सितम सहते,
“मारुत” मारता मौत से पूर्व प्लास्टिक महीन॥