अफ़सोस 

पवन कुमार ‘मारुत’ (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जब आँखें खोली थी मैंने पहली बार
तो आश्चर्य अजीब-ओ-ग़रीब देखा। 
 
सब कुछ सस्ता था इस जहान में
मैंने सकल सस्ती चीज़ें ख़रीदी ख़ूब। 
 
जाति का बँधन ख़रीदा
धर्म की जकड़न भी भर-भरकर
कट्टरता कूट-कूटकर भर ली। 
 
आँगन अत्याचार से भर लिया पूरा
साथ में ईर्ष्या द्वेष दुश्मनी क्रूरता कलेजे में। 
 
हिसाब हिंसा का कैसे करता, 
बेरहमी की चादर ओढ़ी थी बहुत बड़ी। 
 
बस एक ही वस्तु महँगी थी यहाँ
अफ़सोस आज तक तड़पाता है उसे न ख़रीद पाने को, 
और वह थी इन्सानियत॥

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