स्नेह सागर: डॉ. शंकर सिंह तोमर!

01-12-2025

स्नेह सागर: डॉ. शंकर सिंह तोमर!

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

 

कृशकाय, उन्नत ललाट, निर्भीक चाल, आकर्षक व्यक्तित्व; यह हैं डॉ. शंकर सिंह तोमर। डॉ. तोमर बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी हैं। वे एक अच्छे प्राध्यापक, प्रखर चिंतक, सुलझे हुए भाषा विद, सुधी समीक्षक और सहृदय शोध निर्देशक हैं। सम सामयिक इतिहास पर उनकी अच्छी पकड़ है। वे सामाजिक जीवन में भी और साहित्य में भी अपनी साफ़, निष्कपट और निरपेक्ष छवि के लिए जाने जाते हैं। 

डॉ. तोमर अपने मूल परिवेश के कृषक समाज के लिए पढ़े लिखे कृषक है। नगर में शहरातियों के बीच एक सुलझे हुए शिक्षक हैं। साहित्य सभा में कुशल प्राध्यापक, निष्ठावान अध्येता, निष्कपट मार्गदर्शक, साहित्य के हर पक्ष के निष्पक्ष प्रवक्ता हैं। 

पढ़ना, ख़ूब पढ़ना उनकी आदत है। छात्र हो या अन्य ज्ञान-पिपासु विद्यार्थी (विद्या+अर्थी); डॉक्टर तोमर से मार्गदर्शन मिलने पर उसकी समस्या का समाधान और जिज्ञासा की तुष्टि अवश्यमेव होती है। 

उनके शोधार्थियों को शोध निर्देशन के दौरान उनसे किसी किनारे वाले रास्ते की नहीं, मेहनत की सीख मिली। उन्होंने शोध में हमेशा नवान्वेषण और गुणवत्ता को सर्वोपरि रखा . . . उनमें उदारता है; वात्सल्य भाव है। उनके लिए उनके शोधार्थी हमेशा पुत्रवत रहे। जब भी कोई शोधार्थी उनके आवास पर उन्हें अपना शोध कार्य दिखाने आता; तब वे पूरा कार्य बारीक़ी से पढ़ते, यथास्थान यथोचित परिवर्तन/परिवर्द्धन/परिष्करण तो सुझाते ही, चलते समय यह भी पड़ताल अवश्य ही कर लेते रहे हैं—

“काफी देर हो गई, तेज धूप के साथ साथ लू भी चलने लगी है। सिर, मुँह ढकने के लिए तुम्हारे पास कोई गमछा आदि नहीं है। लो मेरा गमछा लो अच्छे से सिर, मुँह ढको, तब निकलो।” 

या

“बहुत सर्दी है। ठंड लग जाएगी। लो यह लोही अच्छे से ओढ़ो।”

♦  ♦

डॉ. शंकर सिंह तोमर ने प्राचीन भारतीय वांग्मय का गहन अवगाहन किया है और अनेक प्रसंगों पर उन्होंने अपना स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। 

उनका एक कथन ध्यातव्य है:

“सत्यम् (The Truth), शिवम् (The Good), सुंदरम् (The Beauty) यह परिकल्पना पाश्चात्य जगत की है, आर्ष साहित्य में यह उपलब्ध नहीं है। आर्ष साहित्य में ब्रह्म के सम्बन्ध में परिकल्पना है—सच्चिदानंद अर्थात्‌ सत (The Essence) चित (The Consciousness) आनंद (The Happiness)। भाव जगत में सर्वोत्कृष्ट स्थिति आनंद की ही है, सुंदर की नहीं। व्यक्ति को अपने जीवन में आनंद की ही स्थिति प्राप्त करनी चाहिए। आनंद की स्थिति ही उसे ब्रह्मत्व का बोध कराती है, लौकिकता से परे ले जाती है।”

अपने एक लेख ‘महाभारत: वर्तमान का यथार्थ’ में वे लिखते हैं, “महाभारत में मानव जीवन के धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, सद-असद, सुख-दुख, सृजन-विनाश सभी पक्षों का व्यापक चित्रण है। यह मानव जीवन की प्रयोग शाला है, मानव मन के अंतर्द्वंद्वों का अध्ययन है, जीवन जीने की कला है। मानव अतीत काल में जैसा जीवन जीता था वैसा ही आज भी जी रहा है। महाभारत वर्तमान का यथार्थ है।”

महाभारत ग्रन्थ के वर्तमान स्वरूप पर डॉ. तोमर लिखते हैं, “कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने महाभारत का सृजन ईसा पूर्व पंद्रहवीं शताब्दी में किया था। परवर्ती काल में इसमें अनेक संशोधन, परिवर्द्धन हुए हैं . . . (कई) अलौकिक, चमत्कारिक तथा बुद्धि-अग्राह्य घटनाओं को समाविष्ट किया गया है।”

डॉ. तोमर वर्तमान और अतीत काल के नारी उत्पीड़न से उद्वेलित हैं। उनका मत है कि पुरुष प्रधान समाज होने के कारण महाभारत काल में अम्बा, अंबिका, अंबालिका और द्रोपदी ने उत्पीड़न झेला। भीष्म द्वारा अम्बा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण, अंबिका, अंबालिका का विचित्रवीर्य से विवाह, अम्बा से किसी का विवाह न करना जैसी घटनाएँ महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि को सुदृढ़ करने का कारक बनी। द्रोपदी का चीर हरण, शील भंग का प्रयास, अपहरण जैसी घटनाएँ उस युग में भी नारी-उत्पीड़न, नारी-अपहरण, बहू-विवाह तथा नारी को दाम्पत्य जीवन से विरत रखने जैसी स्थितियों को प्रकट करती हैं। 

डॉ. तोमर का मानना है कि सत्य और वचन-प्रतिबद्धता हमेशा काल सापेक्ष होते हैं। 

अपने कालजयी लेख ‘महाभारत: वर्तमान का यथार्थ’ में डॉ. तोमर ने शिक्षक, शिक्षा और विद्यार्थी के सम्बन्ध में कर्ण और एकलव्य के बहाने अन्याय के प्रति अपनी वेदना व्यक्त की है। “. . . अवैध संतान की पीड़ा कर्ण को आजीवन भुगतनी पड़ी। आचार्य द्रोण और परशुराम ने उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या नहीं दी थी। द्रोपदी-स्वयंवर में सूत-पुत्र होने के कारण द्रोपदी ने उसका वरण नहीं किया था। आचार्य द्रोण ने धनुर्धर विद्या की प्रतियोगिता में उसे सम्मिलित नहीं होने दिया था। उसका कोई दोष न होने पर भी अवैध संतान की पीड़ा पुत्र को भुगतनी पड़ती है। यह भी कि अवैध संतान की प्रतिभा, पराक्रम, दानशीलता का न तो मूल्यांकन किया जाता है न उसे सम्मान दिया जाता है। यह सामाजिक परम्परा त्याज्य है। विद्या-दान में जाति, वर्ण का विभेद नहीं होना चाहिए लेकिन एकलव्य के साथ ऐसा हुआ।” 

डॉ. तोमर के पिता के सेना में होने, अपने परिवेश के राष्ट्र-प्रेम से प्रभावित डॉ. तोमर में राष्ट्र प्रेम की प्रबलता है। अखण्ड भारत के हिमायती डॉ. तोमर लिखते हैं, “अखंड भारत की परिकल्पना महाभारत युग में भी थी, वर्तमान में भी जीवंत है। कृष्ण का लक्ष्य अखण्ड हस्तिनापुर साम्राज्य के माध्यम से अखण्ड भारत का निर्माण था।”

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डॉ. शंकर सिंह तोमर की अब तक 14 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। 

उपन्यास: 1. अकथ कथा 2. महर्षि विश्वामित्र 3. त्रिधारा। 

कविता संग्रह: 1. परस्व भाग एक 2. परस्व भाग दो 3. समकालीन अभिव्यक्तियाँ। 

समीक्षा ग्रंथ: 1. जीवन मूल्य और रामचरित मानस 2. चिंतन की नवीन दिशाएँ 3. तुलसी जीवन निदर्शनम (प्रकाशनाधीन)। 

इतिहास: 1. ग्वालियर का इतिहास 2. तोमरों (चंद्रवंश) का इतिहास 3. अतीत के विस्मृत-से पृष्ठ 4. अतीत के पृष्ठों में मुरैना। 

कहानी: 1. स्वयंवरा (प्रकाशनाधीन) 

इनके अतिरिक्त देश, विदेश की कई पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। 

सर्व ज्ञात है कि भाषा के मुख्य रूप से चार तत्त्व होते है—ध्वनि, शब्द, वाक्य और अर्थ। पहले ध्वनि का उच्चारण होता है; फिर अनेक ध्वनियों के मेल से एक शब्द निर्मित होता है; अनेक शब्दों के मेल से वाक्य संघटित होता है और उससे अर्थ की प्रतीति होती है। ध्वनि से अर्थ तक का क्रम अनवरत चलता रहता है। शब्द की व्युत्पत्ति की प्रक्रिया का ज्ञान होने से अर्थ स्वयंमेव स्पष्ट हो जाता है। डॉक्टर तोमर भाषा की बारीक़ियों में निष्णात हैं। 

गद्य में डॉ. तोमर की भाषा सीधी, सरल सपाट है। शैली व्याख्यात्मक है। बात अभिधा में है, प्रसाद गुण की प्रधानता है। उनके गद्य में चाहे उपन्यास हों, कहानी या समीक्षाएँ, उनका प्राध्यापक व्यक्तित्व शिद्दत से सामने आता है। यही कारण है कि उनके लेखन के विषयों में कथ्य से तादात्म्य आसानी से होता है और निहित सन्देश आसानी से आत्मसात हो जाता है। 

“पुरुष प्रधान समाज होने के कारण नारी द्वितीय स्थान पर चली गई। नारी को द्वितीय स्थान पर बनाए रखने के लिए उसी प्रकार की सामाजिक संरचना की गई। इस सामाजिक संरचना में अपवादों को छोड़ कर नारी के साथ अन्याय ही अधिक हुआ है।” (निबंध निलय-डॉ. शंकर सिंह तोमर पृष्ठ 15) 

डॉ. तोमर के साहित्य में भारतीय संस्कृति उदात्त रूप में सर्वत्र विद्यमान है। उनकी कविता में अधिकांश में तत्सम बहुलता है, अलंकारिकता है पर बोधगम्यता है। काव्य ध्वनि प्रधान है। सर्वत्र आरोह, अवरोह, गति और लय है। 
एक बानगी:

“जीवन तुम्हारा उन्हीं के 
जैविक गुणों का विन्यास है; 
उनके ही संरक्षण में 
होता व्यक्तित्व विकास है। 
स्वयं रहकर भूखे प्यासे, 
तुम्हें हृष्ट-पुष्ट बनाते हैं; 
पसीना बहा कर दिन रात 
समृद्धि-सूर्य चमकते हैं।”

एक प्राध्यापक के रूप में और एक साहित्यकार के रूप में समाज को प्रेरणा देने में डॉ. शंकर सिंह तोमर का बहुमूल्य योगदान है। एक सराहनीय पहल यह हुई है कि मुरैना के साहित्यकार डॉ. तोमर के व्यक्तित्व व कृतित्व पर जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से अभी हाल ही में एक शोधार्थी ने पीएच.डी. उपाधि हेतु शोधकार्य पूर्ण किया है। 

 

(लेखक दूरदर्शन के पूर्व उप महानिदेशक और स्वतन्त्र पत्रकार हैं।)

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