मज़े में मरती मनुष्यता
पवन कुमार ‘मारुत’
(मनहरण कवित्त छन्द)
देह देह निचोड़ती नरम नश्तर नाल,
वासना विचार वेग बहुत बढ़ाती है।
विवेक विनाश करे कामना कलंकी कहे,
नस-नस नवीनतम नूर नहाती है।
सहमति समेत संयम साथी सुख देता,
सरसता सहजता सबको सुहाती है।
बेमर्जी बेहद क्रूर कलुषित कहलाता,
“मारुत” मनुष्यता मज़े में मर जाती है॥
1 टिप्पणियाँ
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मारुत जी आपने वर्तमान समय के संवेदनहीन होते समाज का सुन्दर जिक्र किया है।