हलधर नाग का काव्य संसार

हलधर नाग का काव्य संसार  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

नर्तकी 

 

घूब-घूब-घूब बजा पुराना ढोल, 
नाचने लगी नर्तकी छम-छम, 
चिलचिलाती दोपहर में, 
शरीर से छूटा पसीना घम-घम। 
 
झिम-झिम काली पतली कमर 
पोशाक पहनी हुई रंग-बिरंगी, 
किंदरी-किंदरी घूँघट उठाकर, 
नाचती वह तीरभंगी। 
 
कंगन, बाज़ूबंद, चूड़ियाँ उसके हाथ, 
चमक चाँदी जैसी, मगर नहीं असल, 
झुमके, नथनी, शिरोमणि 
बनी हुई सभी पीतल। 
 
उसके घुँघराले बालों में, 
बँधा हुआ जूड़ा 
चमकीली रिबन से लटकते बाल, 
लग रहे झूपा-झूपा। 
 
संपुर धुन में गाए गीत 
ढोलकी की ढमाक-ढम, 
“रमणी रत्न मेघों से कहती, 
जाओ, हे मेघ, बुलाओ मेरे प्रीतम।”
 
दर्शकों की उमड़ी भीड़, 
खड़े हुए वे चारों तरफ़, 
महिलाओं में खुसर-पुसर, 
चढ़ाने लगी नाक-भौंहें। 
 
एक ने कहा, “थू!, थू!, 
बेशर्म व्यभिचारिणी यह 
लाज-शर्म आती नहीं, 
लफ़ंगी, चरित्रहीन कह। 
 
“क्या इज़्ज़त, क्या प्रतिष्ठा? 
गली-गली नाचने वाली दुष्ट 
जवानी दिखाती मनचलों को 
फिर भी नहीं संतुष्ट। 
 
बूढ़ी औरत तिलमिलाई, 
कहा जब सुनी यह वार्ता 
“न यह दुष्टा, न यह वेश्या, 
बल्कि नर्तकी सती सीता।
  
“जब राम गए वनवास, 
सीता भी हुई वनवासी 
पति बजाता, पत्नी नाचती, 
नर्तकी क्यों इसमें दोषी? 
 
“पति की सेवा में वह ख़ुश, 
पेड़ों के नीचे सोकर बिताती दिन 
तोते-मैना की तरह उड़ती-फिरती, 
स्वर्ग-सुख से नहीं कोई भिन्न।” 

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