हलधर नाग का काव्य संसार (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पहला सर्ग
हुमा साम्राज्य के राजा बलराम,
बरगढ़ उसकी राजधानी।
झलकता जिसका साफ़ प्रतिबिंब,
दर्पण-सम जीरा नदी के पानी।
लालन-पालन, मिलन-मिश्रण
यह रामराज्य शासन,
मानों राजा ने जीत लिया हो
सारी प्रजा का मन।
प्रजा के सुख में सुखी
प्रजा के दुख में दुखी
प्रजा के मनोभाव पढ़े हो
कहीं छुप-छुपकर।
पानी की कमी वाले गाँवों में,
पानी के स्रोत खुदवा दिए
जिनके पास ज़मीन नहीं थी,
उन्हें ख़ाली खेत दे दिए।
तलवार-कटार, युद्ध विद्या
सभी में वह धुरंधर
घर से बाहर निकलते समय
राजा के कंधों पर,
सदा तना रहता धनु-सर।
उसकी आदत जंगलों में आखेट की थी,
अकेले या किसी के साथ।
बच नहीं पाता कोई भी जानवर,
भले ही, वह हो कितना ख़ूँख़ार।
सुनसान इलाक़े के बारह पहाड़ में,
धुँधली बारह गुफाएँ थी जहाँ।
शिकारी राजा अक्सर जाता था
अपने शिकार पर वहाँ।
फहरा रहे थे, हुमा साम्राज्य की पताका
राजा बलराम देव
प्रजा के सुख-शांति के लिए,
एक पल नहीं बैठे ठेव।
आचरण, विचार, भाग्य, धन
सभी में चार गुना सम्पन्न
उसका राज्य सोन-चिड़िया थी,
कोई भी नहीं था विपन्न।
एक छोटा-सा गाँव,
चारों ओर पहाड़-जंगल नाम था चाऊँरपुर।
राजा ने देखा नहीं था,
मगर सुना था ज़रूर, था अति दूर।
गाँव के मुहाने, छप्पर कुटीर,
छालू सअंरा का घर,
माता-पिता उसके गए गुज़र
दस वर्ष थी जब उसकी उमर
ज़मींदार के घर में
चराता था वह छेली
उसी जाति की थी, एक रँगी
उस गाँव में युवती अकेली
दोनों थे धांगड़ा-धांगड़ी
और एक-दूसरे के मन-पसंद
सूर्यास्त के बाद, किसी कोने में,
वे मिलते थे स्वच्छंद
एक दिन फ़ैसला किया उन्होंने
रहने को साथ में, जुगलबंदी
भोर होने से पहले, तड़के-तड़के।
छालू के घर आ पहुँची लड़की।
कोई हँस रहा था,
कोई निकाल रहा था मीन-मेख
कोई उड़ा रहा था खिल्ली।
“घाट की कन्या, बाट का वर;
हमारा भला, क्या लेन-देन?”
जिसने जो कहा,
किया दोनों ने अनदेखा-अनसुना,
“उन्हें हँसने दो, लेकिन हमारा घर बसने दो“
मल्ली फूलों की ख़ुश्बू फैलने दो
जब दो दिल मिल ही गए हैं।
स्वर्गीक आनंद मनुष्य जीवन
जब मिलता हो पति-पत्नी का मन
अगर कलह हैं, तो क्या फ़ायदा,
भले ही, हो उनके घर कुबेर-धन।
रँगी और छालू दोनों के मन,
बँधे थे ऐसे बंधन।
न छुपे, न तोड़ा सम्बन्ध,
दोनों ने किया एक-दूसरे का समर्थन।
बकरी चराना छोड़, बेचना शुरू किया,
केंदू, हरड़ और आँवले का आचार।
साल के पत्ते, टहनियाँ और काठ
बन गई उनकी जीविका का आधार।
दूर-दूर गाँवों में जाकर,
लाते चावल-धान,
जितना मिलता खा-पीकर,
काट रहे थे सुख से दिनमान।
केंदू की तलाश में एक दिन
चले गए वे घने-जंगल-झार।
रँगी के सिर पर एक बड़ी टोकरी,
छालू के कंधों पर एक जोड़ी भार।
पेड़ पर चढ़कर, छालू ने झकझोरा केंदू
फल गिरे भरपूर।
इकट्ठा करने लगी ख़ुशी से रँगी,
गुनगुनाते गीतों के सुर।
सुख-दु:ख दोनों जुड़वाँ भाई,
आते बारी-बारी।
हँसता चेहरा पिचक जाता है
और पिचके पर चमक भारी
ऊपर-नीचे जैसे शगड़ डंडा,
जीवन वैसे साँप-सीढ़ी की क्रीड़ा।
पग-पग पर पीड़ा
भाग्य-न्यौता, नहीं और लफड़ा।
भूल से डाली छोड़ झुक गया छालू,
नीचे गिरा झड-झंड।
जैसे ही वह गिरा भूमि पर,
टूटा उसका मेरु-दंड।
जल्दी से रँगी भागी नदी को ओर,
भिगाने अपने आँचल की कानी।
दौड़ आई पति के पास,
मुँह में निचोड़ा पानी।
केंदु टोकरी रँगी ने दी वहीं छोड़ झट,
और उठाया उसे तरबर,
बारह जगहों पर उठते-बैठते
वह आई अपने घर।
उस दिन से रँगी को करनी पड़ी
भर्तार-सेवा हर पल, हर क्षण
एकनिष्ठ भाव से समर्पित होकर,
लगी रहती वह निशदिन
खिलाना, पिलाना, नहलाना, मलना,
मल-मूत्र धोना या दवाई देना हो
एक माँ के जितने जत्न, वह करती उतने यत्न,
मानो उसका अपना गुंरुड़ीडगोपाल हो।
घर-घर गुहाल गोबर लेपन कर,
वह जहाँ भी जाती,
सबसे पहले, अपने पति को खिलाती,
फिर बचा हुआ वह ख़ुद खाती।
एक दिन छालू ने कहा, “रँगी,
सुन, मेरी एक बात
दूसरे आदमी का हाथ पकड़,
बसा अपना नया निकेत।
“तुम्हारी अभी धांगड़ी वयस,
मत बर्बाद करो अकारण।
कितना उठाओगी मेरे लिए परेशानी,
सहोगी अभाव और कषण?
“मैं अक्षम, टूट गया मेरुदंड,
पड़ा हूँ यहाँ अधमरा।
पता है मुझे, प्रतीक्षारत यमदूत,
खड़े मेरे खातिर।”
छालू के शब्द सुनकर,
रँगी के आँखों में गंगा-जमुना
हाँफते-हाँफते बोली प्रभु,
मत बोलो ऐसा, करो करुणा,
“तुम हो रँगी के हर्ता-कर्ता,
उसके साक्षात् भगवान
तुम्हारे पाँव तले मेरी जगह,
इन्द्रपुरी समान।
“साथ-साथ जाऊँगी अगर तुम्हें,
ले जाते हैं यमदूत जहाँ।
पास रह, कर पाऊँगी,
तुम्हारे चरणों की सेवा वहाँ।”
तीन दिनों से मूसलाधार बारिश,
रुकने का नाम नहीं
भूखे रहे वे दो प्राणी
खाने का नामोनिशान नहीं।
कुछ सोचने के बाद,
रँगी की खुली बुद्धि
पहली भेंट में छालू ने दी थी
तीन ग्राम चाँदी की मुदि।
लसर-पसर तरबतर,
वह भागी पास के गाँव
लाई एक किलो टूटे चावल,
मुदि का लगाकर दाँव।
बिना लगाए गाँठ पनत की
जल्दबाज़ी में वह भाग रही थी।
बचा केवल चावल था इतना
एक ग्रास भी नहीं अटे मुँह जितना।
रास्ते में नदी-नाले
टिबे-टिले चोराबालू।
गया उसका पैर फिसल,
वह गई नीचे गिर,
बिखरा चारों ओर चावल।
रँगी के सुखी संसार में,
हर जगह अंधकार-ही-अंधकार,
वह अपने पति को क्या खिलाएगी?
जो कर रहा था उसका इंतज़ार।
ज़ोर-जोर से लगी चिल्लाने,
अपनी छाती पीट तड़ातड़।
“बेशर्म मैं, मेरे इन हाथ-पाँवों क्या फ़ायदा,
जब बाँध नहीं सकी गाँठ।
“घर जाकर, कैसे उनका मुँह
देख पाऊँगी?
मैं वापस नहीं घर जाऊँगी
यहीं मर जाऊँगी?”
मूर्च्छित हो गिरी वह वहाँ,
साँप-बाघों से बेख़बर
भूख ने घोंपी सूली उसके उदर
जिसकी न थी उसे ख़बर।
अचेत होते देखा उसने
गहरे पानी से बाहर आती सुंदर-नार
हँसती-हँसती आई उसके पास,
खड़ी हो गई चोराबालू के उस पार।
बोलने लगी, “रँगी, उठो! बेटी
मन में चिंता मत कर
ऐसा उपाय बताऊँगी तुझे
जिससे दरिद्रता हो जाए दूर
“जीवन भर जितना भी ख़र्च ले,
कभी न होगा कम धन।
तुम्हारा पति-प्रेम देखकर,
मैं हुई प्रसन्न।
“नदी के किनारे जाते-जाते
लगभग पाँच कोस दूर
दे रही मैं अपनी ताक़त तुझे
भूख-प्यास रहेगी दूर।
“देखोगी एक रेतीला कूद (टापू),
चारों तरफ़ पहाड़ियों का घेरा
कूद पर कुंडली मारे
एक संखिचोल साँप का पहरा
“तुम्हें देखते ही वह साँप
कर जाएगा पलायन
उस जगह की करना खुदाई
धरकर मेरा ध्यान
“मुट्ठी-मुट्ठी भर सात मुट्ठी
शुद्ध कोहिनूर हीरा
जौहरी को उन्हें बेचना
जाओ अब मन रख धीरा।
“तुम्हारा पति ठीक हो जाएगा, “
मैं करूँगी उनकी सहायता
लौटोगी नहीं कभी पीछे अबसे
सीधे मुँह चलती जाओ।”
भोर-भोर जब रँगी को आया होश
उठ कर देखने लगी चकित
वह स्थान जहाँ देवी थी खड़ी
पैरों के निशान वहाँ थे अंकित।
एक ही साँस में वह दौड़ी,
देवी की आज्ञा अनुसार
सपने में उसने जिसे देखा था,
नाम नहीं उसे पता मगर।
मन में सुमिरन किया, “हे देवी,
मैं तुम्हारा नाम नहीं जानती
सअंर गोत्र की कुलदेवी पूजा
करती हूँ ‘माँ सौनेरी’ अर्पित”
पाँच कोस दूर कर पार,
वह पहुँची सही स्थान
नहीं मिला पथ कूद का,
चारों तरफ़ पहाड़ियाँ विद्यमान।
मन-ही-मन कहा, ‘माँ सौनेरी’
हे देवी, माँ सौनेरी!
तुम्हारे सिवा इस ग़रीब रँगी का,
कौन सहारा।
टेड़ा-मेड़ा एक संकीर्ण मार्ग,
एक पहाड़ी के पास उसने देखा
वह पार की एक चूहे की तरह,
कोनों और दर्रों से गुज़रती रेखा।
साँप फुफकार रहे थे, बाघिन दहाड़ रही थी,
सभी उसे खाने के लिए आगे बढ़ी
अपने जीवन की परवाह किए बिना,
वह घुमाव-घुमाव पर दौड़ पड़ी।
जाते-जाते अगले घुमाव पर पहुँची
वह उस बालू-कूद,
अगर धसक गई, तो दफ़ना दी जाएगी,
पता चलने से पहले वह जाएगी मरमूद।
डरते-काँपते वह चढ़ी शिखर
सँभल-सँभल रख पाद
शिखर पर जाकर देखा उसने
मन-ही-मन गिने परमाद।
कितना बड़ा संखिचोल साँप
सो रहा कुंडली मार!
रंग-बिरंगा कबरा-कसरा
इसकी विशेषताएँ अपरंपार।
फूल गई देह पेड़ के तने की तरह,
देख रही हो जैसे यम का सपना
भूखे शेर के मुँह में मानो,
उसने डाल दिया हो सर अपना।
फन उठाकर देखा साँप ने डबडब
रँगी को अपनी आँखों से मधुर
उसके भीतर जो डर घुस गया था,
एक पल में हो गया चकनाचूर।
छाती पर रख पत्थर, खोदा रँगी ने
साँप का शयन-स्थान
उसे मिले हीरे सात
दिख रहे थे महा देदीप्यमान।
तप्त अंगार दिखता जैसे,
वैसे झलकते हीरे हों
ख़ुशी से चिल्लाई, रँगी सअंरन,
“माँ सौनेरी, तुम महान हो।”
पल्लू की गाँठ में बाँध,
आई वह घर अस्त-व्यस्त
माँ की कृपा से छालू,
बैठा था होकर तंदुरुस्त।
देवी का थान, देवी का दान
कोहिनूर हीरे शुद्ध
उस दिन से वह स्थान
कहलाया हीराकूद।
धीरे-धीरे यह ख़बर फैल गई,
भारत के हर प्रांत
हुमा राज्य बना हीराखंड,
और हीराकूद विख्यात।
घर-घर कानाफूसी
करने लगे जन-जन
“इतनी दौलत, रँगी सअंरन
लाई कहाँ से इतना धन?”
“क्या अपना शरीर बेचकर
या चोरी कर?
तरह-तरह के सामान
उसके घर में भरपूर।
“क्या किसी अमीर आदमी का गड़ा ख़ज़ाना
पाया उसने वह गुप्त-धन?
घर बैठे सुख से राजभोग
आनंद ले रही मन-ही-मन।
“पारस पत्थर मिला क्या उसे
जो लोह को कर देता स्वर्ण?
अगर लोहा हो गया सोना
तो फिर क्या उसके अभाव-अनाटन?
“बिना किसी प्रार्थना-अनुष्ठान,
क्या महालक्ष्मी उससे हुई प्रसन्न?
उसके घर में कोने-कोने
भरे कई क़ीमती सामान।
“टूटी रीढ़ लिए पड़ा था छालू
फूटी पाई नहीं थी ख़रीदने को औषध
फिर सब अपने-आप यह कैसे हुआ
वह भी हो गया स्वस्थ?”
तुरंत चाऊँरपुर का पूरा गाँव,
हो गया असहिष्णु
मुखिया था कान का कच्चा
उसके साथ बड़े बोले अविष्णु।
वे सभी एक साथ हो गए,
बाहर हो गए अपने आयत।
बरगढ़ भेजकर ख़ुफ़िया
राजा बलराम से कराई शिकायत।
“चाऊँरपुर की रँगी सअंरन,
और उसका पति छालू सअंरा
नहीं था उनके पास कुछ भी
सिवा गुहाल-गोबर की सफ़ाई की परंपरा।
“कहाँ से आया, चोरी या धोखाधड़ी से,
भरपूर उसके घर धन
भुखमरी थी उनके घर
फिर वे कैसे हो गए महाजन?
प्रजापालक राजा बलराम ने
हुक्म दिया तुरंत ही
“बंदी बनाकर लाओ रँगी सअंरन!
पूछते है उसकी वृत्ति।”
राजा का हुक्म मान दौड़े मंत्री
कोतवाल पलटन
चाऊँरपुर से लाए रँगी को
बाँध बेड़ी-बंधन।
उस समय हो रहा था सूर्यास्त
छाने लगा था अंधकार
जब रँगी हुई हाज़िर
विसर्जित हो रहा था दरबार।
राजा ने कहा, अब इसे डाल दो
जेल भीतर
कल सुबह वह बताएगी सारा माजरा
राज-दरबार।
रँगी को जेल में बंद कर कोतवाल ने
लगा दिया ताला
रँगी ने सुमिरन किया, “माँ सौनेरी,
धन दिया, ऐसा हो मेरा भला!।”
रानी के अंतपुर में राजा सोया,
पास में रानी महादेई
राजा को एक सपने में दर्शन दिए
देवी माँ सौनरेई।
कहा राजा से, “क्यों बाँध रखा है तुमने
मेरे भक्त को तुम्हारी जेल में?
तुम्हारे लिए, यह अच्छा नहीं होगा,
बाद में मरोगे पछतावे में।
“मैंने रँगी को धन दिया है,
उसने नहीं की चोरी-चारी
जिन लोगों ने तुम्हें गुप्त सूचना दी,
वे हैं ईर्ष्यालु, अहंकारी।
“मेरे न्याय से बढ़कर तुम्हारा न्याय
नहीं हो सकता कारगार
पहले से ही सचेत करती हूँ
मत बनना जानवर।
“यदि मेरी बात नहीं मानी तो
होगा तेरा सत्यानाश
ससम्मान लौटा रँगी को
अपने पति के पास।”
चमक उठा राजा बलराम,
धड़क रही थी छाती
तुरंत जेल की ओर,
किया प्रस्थान उसने अर्द्धरात्रि।
उसने देखा, जेल खुला था;
रँगी एक दीवार के सहारे झुकी पड़ी
टुकड़े-टुकड़े हो नीचे पड़े थे,
उसकी जंजीर-हथकड़ी।
रँगी के पैर पकड़ बोला राजा
“हे माँ, मुझे नहीं था ज्ञान
मेरी भूल माफ़ कर दो,
राजा बलराम ने तुम्हें किया हीनमान।”
रँगी को पूरे सम्मान के साथ,
उसने उसे घोड़ागाड़ी पर बैठाया।
दास-दासियों के साथ,
उसने उसे चाऊँरनपुर विदा किया।
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत और नीदरलैंड की लोक-कथाओं का तुलनात्मक विवेचन
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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