हलधर नाग का काव्य संसार (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
दूसरा सर्ग
‘दाल में कुछ काला है‘—राजा के मन में आया
रँगी संअरन कहीं जादूगरनी तो नहीं?
जो घटना घटी कल क्या वह
त्रिपटना का काला जादू तो नहीं?
‘मेरे सपने में कौन देवी आकर
कह गई मेरे कान
देवी दुर्लभ है, फिर भी कहीं
तो होगा उसका स्थान
‘रँगी संअरन ने प्रसन्न किया है
और उन्हें रखा अपने वश
इसलिए, उसके पीछे खड़ी होकर
मदद कर रही देवी अवश
इस बात से राजा परेशान
हो रहा चिंताकुल
सच या भ्रम, जानने के लिए,
था अति व्याकुल
चार हथियारों के साथ निकला बाहर
एक दिन बलराम राजा
दस दिनों के लेकर साज-बाज
प्रवास और भोजन का खंजा।
पक्षीराज जैसे लेशबंद घोड़े की
पीठ पर दिया सब-कुछ लाद
बाघ जैसे उनके कुत्तों की जोड़ी,
समवेत गति से करती नाद।
उसके पास न कोई शाही पोशाक,
न कोई भी भर्तार,
सरपट भागा घोड़े को लेकर,
अकेले बरगढ़ से बाहर
जाते-जाते रास्ते में मिले गहरे गव्हर
घने जंगलों की बाट
भटक गया वह रास्ता
हो गया भ्रमित, उत्हाट।
सरगी, सलिहा, धअरा, धामेन,
बीजा, हालन, मुएद पेड़
गूँथी लताएँ-डालियाँ
और बाँस-बूटों की भीड़।
सूर्य-किरणें छू नहीं पाती,
घने झुरमुटों की गहल
पल्लवित पेड़ों पर लदे
भरपूर फल और फूल।
सूअर, मृग, नीलगाय
धूमा, सांभर, चीतल
पलक झपकते ही
भागते उनके दल।
पखेरु-सरगना, कुंभटी, लुआ,
मैना, तीतर, पंडका
इस डाली से उस डाली
कभी फुदका, कभी चहका।
चिल, घन्टो, बाग-अंपरा,
किरकिची, बुरोलटी के काँटे पर्याप्त
दुर्गम पथ पर घोड़ा का
साहस हो गया समाप्त।
खींच-तान से चलता घोड़ा
छोटी संकीर्ण सुरंग
रकाब अगर छूटी तो
राजा नीचे, ऊपर तुरंग।
जीभ लपलपाते जा रहा था
घोड़े के पीछे कुत्तों का दल
इस तरह आ गए
बहुत दूर जंगल भीतर।
चित्रोत्पला के तट पर,
घोड़ा दिया अटकाए
दूसरी तरफ़ जाने का
नहीं कोई उपाय।
घोड़े के नीचे से निकला राजा
भूखा लसर-पसर
तंबू गाड़कर डेरा डाला,
भटक इधर-उधर।
दाना-पानी देकर घोड़े को दिया बाँध,
नज़दीक किसी बेहेरा पेड़
श्वान-युगल लगा भौंकने
तम्बू की लेकर आड़।
उन्हें सुनकर, पास के गाँव से,
भौंका दूसरा कुकुर झुंड,
राजा ने लगाया अनुमान पास में
होगा चाँऊरपुर का मुंड।
शाम की हूर हूर हूर,
बहती शीतल पवन
हवा के झोंकों के साथ आती
जंगली फूलों की महकन।
चित्रोत्पाल नदी की लहरें,
लौटती नाचती नाचती
बीच-बीच में लंबी घास
हवा से सिर उठाती।
टिल्टिला पक्षियों की किलकिलाहट ध्वनि,
कँपा देती जंगल-झार
सूरज अभी-अभी डूबा है
नहीं हुआ अंधकार।
लहरें गिनने लगा बलराम,
नदी के इस किनार
एक तरफ़ भुजनिआ तो,
दूसरी तरफ़ डेबरिआ कुकुर।
उसी समय, एक ख़रगोश आया कहीं से
फुदकते-फुदकते,
दोनों पैर उठाकर लगा चिढ़ाने राजा को
नाचते-नाचते।
जैसे बाघ के आगे नाच रही हो हिरण,
बिल्ली के आगे मूसा
या बगुला भगा रहा जरडा मछली,
जैसे सभी हो पूसा।
दाँत भींचकर श्वान-युगल
तेज़ी से आगे दौड़ा
एक पल में जैसे उन्होंने
ख़रगोश को फाड़ा।
मुँह फुलाकर ख़रगोश झपटा,
पीछे भागे कुत्ते डर
कँपकँपाते जीवन बचाते,
छिप गए तम्बू भीतर।
चकित हो गया देख बलराम,
ऐसा क्या है मंत्र
एक चूहे को देखकर दो बिल्लियाँ
भागी हो छिन्न-छत्तर!
‘ऐसी अनदेखी घटना, अनसुनी बात,
शास्त्रों में भी नहीं लिखी हुई
कितनी अद्भुत घटना आज,
आँखों के आगे दी दिखाई!
‘कुत्तों की जोड़ी दे रही थी दिखाई
मानो ख़ूँख़ार लकड़बग्घा
जिनके डरकर, बाघ, भालू, चीता
जीवन के डर से जाते भाग।
‘बस एक छोटे से ख़रगोश को देख,
डरकर गए वे छिप
बिलकुल चुपचाप वे,
तंबू के भीतर रहे काँप!’
संदेह-जाल में फँसता जा रहा था राजा
नहीं मिल रहा था उसे थल-कूल
घटना कुछ ऐसी ही लग रही थी
जैसे हो किसी जादूगर की चाल।
अमावस्या की रात, धीरे-धीरे
छा गया अंधकार
उदय हुए आकाश में टिमटिमाते
तारें हज़ारों-हज़ार।
झिंगुर-झिंकारी कर रही बहरे कान,
जंगली जानवरों की गर्जन
चुड़ैल, पिशाच, भूत बतिया रहे
अपनी-अपनी ज़ुबान।
तम्बू भीतर चला गया राजा
सो गया हो उत्तान
मन में करने लगा मंथन,
ख़रगोश द्वारा कुत्तों का अपमान।
पता नहीं कब, नींद की देवी ने,
लिया उसे अपनी कोल
आँखें बंद कर खर्राटे लेते
सो गया राजा भोल।
सपने में उसने देखा नदी में
हो रही हुलहुली
चकित हो अपनी निगाहें डाली,
चहुंदिशा धुली-धुली।
गहरे पानी में एक चट्टान पर,
जल रही थी दिया-बत्ती
कमल-आसन पर विराजमान
अपूर्व चाँद जैसी अलौकिक प्रदीप्ति
‘यह दीया है या कोई और?
दिख रहा मानो तारा
ताराफूल लगाकर आई है कोई,
क्या स्वर्ग की अप्सरा?
‘चित्रोत्पला की जल देवी,
क्या परख रही मेरा मन?
सिर पर धर दीपक,
क्या वह देने आई दर्शन?
‘क्या कृष्ण-पत्नी सत्यभामा है?
जिनकी मुकुट-मणि चमकती झक-झक
सविता से ज़्यादा चमकीली,
जिसका अनोखा नाम है सुमंतक
‘स्वच्छ-पानी में स्नान करने,
क्या आई देवी ऊषा?
भोर-तारे का पहन गहना,
अपने सिर की वेशभूषा?
‘वह कोई भी हो, मुझे पूछने दो;
पा जाऊँगा पहचान
अगर देवी है, तो कुलदेवी रूप में
करूँगा पूजा-सम्मान।’
नदी तट पर उतर बलराम
अति-साहस और अति-विश्वास
मोड़ पर मोड़ पार किए
नुकीले पत्थरों पर लें दीर्घश्वास।
थरथराई मएसेना घास
बह गया जामुत लताओं का गुठांव
आदमक़द जंगल-झाड़,
घने झुरमुटों में फैलाते पाँव।
कोई रास्ता नहीं मिल रहा था उसे,
तेज़ी से आगे बढ़ा, हो निर्भया
उस किनारे पहुँच वह हडबड़ाया,
देख केवल पानी की माया
अथाह जल, ताल-ताल पानी,
दिखते मगरमच्छों के मुंड
और पानी में खेल रहे थे,
जल-सर्पों का झुंड।
भीम जैसे बहादुर राजा ने,
ख़तरे की एक नहीं मानी
कमर कस, जान जोखिम में डाल
तेज़ी से कूद गया पानी।
तैरते-तैरते गया वह देवी के सम्मुख,
गर्दन तक पानी में हो खड़ा
पूछा, “हे माता, तुम कौन हो,
क्यों ले रही मेरी परीक्षा कड़ा?
“विष्णु के घरवाली लक्ष्मी हो?
या शिव की पार्वती?
बैकुंठपुर से आई हो?
वीणा वादिनी सरस्वती?
“नागिन, योगिन या अप्सरा,
गंधर्वी या किन्नरी?
कहो मुझे, क्यों बैठी हो अकेली?
हे माहेश्वरी!
“सेवा या भक्ति नहीं की कभी,
फिर भी मुझसे तुम हो प्रसन्न
किस पुण्य-फल से आँखों को,
हो रहे तुम्हारे दर्शन?
“मैं आपको पहचानने में असमर्थ हूँ,
बता दो मुझे अपनी पहचान
ईषत भाव से आजीवन करता रहूँगा
हे माँ, सेवा निश-दिन।”
थोड़ी मुस्कुराकर बोली देवी,
“सुनो, हे बाबू बलराम
तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ,
बताती हूँ मेरी पहचान।
“सर्व-शक्तिमान देवी,
शिव-अर्द्धांगिनी मैं
स्पष्ट बताती हूँ आई
कैसे कोसल में।
“कैलाशपुर में एक बार,
उचटा मन हमारा,
नंदी से किया एक दिन,
स्वर्गपुर का दौरा।
“ख़ुशी से वहाँ के देवताओं ने,
किया हमारा स्वागत भव्य
इंद्र-सिंहासन पर बिठाकर,
अर्पिता पूजा-विधि हव्य।
“इंद्र-शशि ने की हमारी पाद-पूजा,
मान-सम्मान, मिनती-विनती
बोले, ‘हे महादेव
और महादेवी पार्वती।
‘देवताओं पर दयादृष्टि रखेंगे,
हे उमा, महेश्वर प्रभु
तुम्हारी कृपा-बिना, नहीं होगी
स्वर्ग में शान्ति, हे विभु।‘
“बहुत धूमधाम से मना आनंदोत्सव
स्वर्ग की धरा
संगीत पर थिरकी चिरभंगी,
आठ-आठ अप्सरा।
“सोने की थाली में शशि लाई
सात पारिजात के फूल
बड़ी चाव से रानी ने
खोंसा उन्हें मेरे बाल।
“स्वर्ग से हम दोनों,
लौट रहे थे जब
भगवान ने चुपचाप खेला खेल,
पता नहीं कब।
“अपने सिर की खुली जटाओं से,
तोड़ा एक लाँग
आठ टुकड़े कर आकाश से,
फेंका नीचे भू-भाग।
“अष्ट-खंड जटा जहाँ गिरी,
उस जगह प्रकाशी,
अष्ट-शंभू लिंग,
बन देव कासी
“निलजी, सारंडा, हुमा, गासिमा,
अंबभोना, मानेश्वर
देवगांव, सूरना-आठ जगहों पर
पूजा पाते शिव-शंकर।
“मुझे पता चली जब उनकी चालाकी,
चालबाज़ भोलेनाथ।
मैंने अपनी वेणी से निकाले फूल,
शशि के सातों पारिजात।
“जब शिव नहीं देख रहे थे
मैंने फेंका गगन से तत्क्षण
सात जगह गिरकर बने
सात बहनों की स्थापन।
“सात बहनों में से, मैं हूँ
समलेई, बड़ी बहन
यह पवित्र गहरे पानी वाला स्थान,
है मेरा निवास-अयन।
“पटनेश्वरी, मानिकेश्वरी,
सुरेश्वरी, मेटकानी
चंद्रहासिनी, घंटेश्वरी
सात बहिनों की बहिनी।
“नदी के उस तट ले जाकर मुझे
समलई पेड़ के तल,
शुद्ध हृदय से स्थापित करो,
कर पूजा-विधि निर्मल।
“संअरा जाति के अविवाहित पुरुष
होंगे मेरे सेवक
संअरई छोड़ समलेई नाम से
चावल-भोग चढ़ाएँगे पूजक।
“तुमसे प्रसन्न हूँ, बलराम
जंगल काट बसा एक ग्राम
उस गाँव का दोगे बाबू,
मुझसे मिलता-जुलता नाम।
“मैं समलेई हूँ, श्री समलेई
श्री समलई!”
यह कह अन्तर्धान हो गई
दयामयी माँ समलेई।
अचानक टूटी नींद राजा बलराम की
उठकर बैठ गया निचली चोटी
देवी की छवि आँखों के आगे
आ रही थी कोटि-कोटि।
उसने देखा, सुबह का तारा,
धुँधलके में खो रहा था।
तिमिर धीरे-धीरे मिट रहा था,
झार-जंगल रोशन हो रहा था।
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत और नीदरलैंड की लोक-कथाओं का तुलनात्मक विवेचन
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
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- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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