रहती है मंज़िल मेरी मुझसे आगे

15-10-2020

रहती है मंज़िल मेरी मुझसे आगे

कु. सुरेश सांगवान 'सरू’ (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

रहती है मंज़िल मेरी मुझसे आगे
इक उलझन से निकले तो अटके आगे 
 
काम मुहब्बत नाम वफ़ा का सीख लिया
और भला हम क्या बढ़ते इसके आगे 
 
डाल दिया डेरा हमने दर पर उनके
जाने किस-किस से हम भी मिलते आगे 
 
दीपक हाथ न मेरे पाँव में ताक़त है 
कैसे होंगे अब जाने रस्ते आगे 
 
हर शय है इक जाल यहाँ मोहमाया का
इस दुनियाँ से निकलेंगे कैसे आगे
 
मैं चलती हूँ जैसे इश्क़ चलाता है
एक नहीं चलती मेरी इसके आगे 
 
जो देखे थे ख़्वाब अधूरे हैं अब तक 
बोलो अब मैं क्या देखूँ सपने आगे
 
रंग चढ़ा देते जो दूजे पर अपना 
चलता है उनका सिक्का सबके आगे

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