प्रकृति कुछ कह रही है
सुनो, मगर हृदय के कानों से
देखो वो हमें पुकार रही है।
नदिया है पुकारती
कल कल करती दे रही पैग़ाम
जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहने का. . . अविराम।
पर्वत भी तो अपनी ऊँचाई से
मानव-जन को करते अभिभूत
ऊँचा उठो, मत रुको लक्ष्य प्राप्ति तक; न होकर पराभूत।
सागर भी तो दे रहा संदेश
अपनी गहराई में गोता लगा
खोज लाने को
सारे ख़ज़ाने अनिमेष।
कलरव करते पक्षी हमें बुला रहे
हवा को चीरकर
आकाश छूने।
बरसता सावन है आतुर
हमें भिगोने को
प्रेम जल में कर सराबोर होने को कामातुर।
पीली सरसों सौंदर्य बिखेरती
मानुष मन को कर प्रफुल्लित
बसंत आगमन की ख़ुशी में झूमती।
प्रकृति पर्याय है अध्यात्म का
भौतिकता कुछ हद तक ही सही,
वरना समझो इसे तुम अंजाम विनाश का।