मैं तिरे नज़दीक़ आना चाहती हूँ

01-12-2019

मैं तिरे नज़दीक़ आना चाहती हूँ

कु. सुरेश सांगवान 'सरू’ (अंक: 145, दिसंबर प्रथम, 2019 में प्रकाशित)

मैं तिरे नज़दीक़ आना चाहती हूँ
ख़ूबसूरत इक बहाना चाहती हूँ
 

हो रही है ज़िंदगी ये और मुश्किल
जब इसे आसाँ बनाना चाहती हूँ
 

वो ज़माने से कहीं खोई हुई है
ज़िंदगी को ढूँढ लाना चाहती हूँ


पूछ लूँगी  मैं उसी से हाल उसका
और कुछ उसको बताना चाहती हूँ

 
अब करेंगे काम आँसू भी दवा का
आज खुल के मुस्कुराना चाहती हूँ

 
थामकर तुमको बहारें थाम ली हैं
रोशनी बन जगमगाना चाहती हूँ
 

देख ली हम ने तुम्हारी जाँनिसारी
अब ख़ुदी को आज़माना चाहती हूँ


तू गुज़रता है जहाँ से यार ऐसी
हर जगह गुंचे खिलाना चाहती हूँ
 

मुद्दतों से बादलों की ताक़ में हूँ
आग है दिल में बुझाना चाहती हूँ
 

सोगवारी आँख की दहलीज़ पर है
अब ज़रा रोना रुलाना चाहती हूँ
 

तेज़ रफ़्तारी मिरे किस काम की है
दोस्तों का साथ पाना चाहती हूँ

1 टिप्पणियाँ

  • 29 Nov, 2019 04:18 AM

    Very nice !! Like it

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