यायावर मैं–011: ठहरा हुआ शहर

15-01-2024

यायावर मैं–011: ठहरा हुआ शहर

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

1984 में मेरी पोस्टिंग कानपुर हुई। इससे पहले इलाहबाद में था। वहाँ पनकी में हमारा कार्यालय था अतः पनकी में ही किराये से मकान लिया और वहीं रहने लगा। चूँकि मेरी रुचि साहित्य में थी अतः वहाँ साहित्यकारों से मिला। 

सबसे पहले गिरिराज किशोर जी से भेंट हुई। इलाहबाद में अमरकांत जी ने संदर्भ दिया था कि उनसे अवश्य मिलिये। गिरिराज जी उस समय आईआईटी कानपुर में सृजनात्मक लेखन और प्रकाशन विभाग के विभागाध्यक्ष थे। इससे पहले रजिस्ट्रार हुआ करते थे। आईआईटी प्रबंधन से खटपट के चलते संस्पेंशन हुआ था लेकिन लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़कर पुनः बहाल हुए थे और उन्हें रजिस्ट्रार न बनाकर मानविकी विभाग का पुनर्गठन कर नये विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया था। तब वे अपने उपन्यास पहला गिरमिटिया पर काम कर रहे थे। दूसरा परिचय हृषिकेश जी से हुआ। वे उस समय कानपुर के मुख्य डाकघर में डिप्टी पोस्टमास्टर थे। अच्छे आलोचक और स्पष्टवक्ता थे। उनसे मिलने अनेक साहित्यकार आते थे जिनमें सिंदूर जी प्रमुख थे। सत्यपाल, विवेकानंद और पुरुषोत्तम वाजपेयी तथा पुरुषोत्तम प्रतीक, राजकुमार सिंह आदि से भी वहाँ भेंट हुई। करेंट बुक डिपो हमारी साहित्यिक भूख मिटाने वाली जगह थी। जहाँ बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ और किताबें हमें उपलब्ध हो जाती थीं। 

अक्टूबर 1984 के अंत में इंदिरा जी की हत्या के बाद कानपुर का क्रूर चेहरा भी दिखा जब दंगाइयों-बलवाइयों ने जमकर मार-काट और लूटपाट की। मैं भी उससे प्रभावित हुआ क्योंकि मैं एक सिख के मकान में रहता था। उस हादसे पर मैंने एक कहानी लिखी है। 

बहरहाल बाद में हमारा कार्यालय जूही कलां में आ गया और मैं किदवई नगर में रहने लगा। वहाँ चार वर्ष रहा। वहाँ शील जी से भेंट हुई। वे किदवई नगर में ही रहते थे। उनसे अंतरंगता बढ़ी। उनका स्नेह रहा। बाद में उन पर केंद्रित धरती का एक अंक भी निकाला। 

मेरी नौकरी गाँव-गाँव, जंगल-जंगल घूमने वाली नौकरी थी। अतः जहाँ भी रहता वहाँ के भूगोल और संस्कृति से अच्छी तरह परिचित हो जाता। तो इलाहबाद से भरवारी, सिराथू, खागा, फतेहपुर, बिंदकी और कानपुर से रनियां, बारा, अकबरपुर, सिकंदरा, भोगनीपुर, घाटमपुर, पुखरायां, औरैया, फफूंद, बिधूना, मुरादगंज, बाबरपुर, महेवा, बकेवर से इटावा तक हज़ारों गाँवों में जाता रहा। 

हमारा कार्यालय जिस इमारत में था उसके मालिक थे ओमप्रकाश त्रिवेदी। वे न केवल राजनीति में सक्रिय थे वरन्‌ अपने इलाक़े के डॉन भी थे। गोरखपुर के हरिशंकर तिवारी के मित्र थे। उस समय केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान (अब केरल के राज्यपाल) के क़रीबी थे। प्रमोद त्रिवेदी उनके शिष्य थे। तो मज़दूरों और सामान्य नौकरीपेशा मध्यवर्गीय नागरिकों, अपराधियों और राजनेताओं से लेकर साहित्यकारों तक पहचान बनी। कानपुर एक ठहरा हुआ शहर है। महानगर होते हुए भी वहाँ की संस्कृति और मानसिकता क़स्बाई है। चूँकि वहाँ उद्योग-धंधे ख़त्म हो गये। नये अवसर पैदा नहीं हो सके अतः बड़ी संख्या में लोग वहाँ बेरोज़गार हो गये और चालाकी-चतुराई के जाल में फँस गए। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
यात्रा-संस्मरण
स्मृति लेख
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
कहानी
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें