अहा!

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

एक था गाँव
गाँव में थे लोग
कुछ भले कुछ भोले
अधिकांश ग़रीब और विपन्न
लहलहाती थी फ़सलें
गाँव सुंदर था
 
एक मुखिया था
राजनीति थी
जन-बल का ज़ोर था
शक्ति प्रदर्शन और अपराध
ईर्ष्या और अहंकार
पीछे पुलिस थी, लालच था
 
फ़ौजदारी थी, मुक़द्दमे थे
ज़िले में न्यायालय था, जेल थी, अफ़सर थे
वकील थे, तारीख़ें थीं
एक अजब सा दुष्चक्र था
ग़ज़ब संजाल
लोक पर हावी था तंत्र
 
भले और भोले दोनों मुखिया के पाले में
मेहनती किसान, मज़दूर लगे रहते अपने काम में
नहीं समझते जो राजनीति
वे बनते शिकार
सालों साल उलझे रहते मुक़द्दमों में
 
शोषण था अबाध
बिन पैसे नहीं था न्याय
मुश्किल था निर्दोष साबित कर पाना ख़ुद को
दुर्दिनों की मार झेलता उनका परिवार
यह सब चलता नियति मान सहज भाव से
कभी धीमी गति से कभी तेज़ी से
मान लिया था ग्रामवासियों ने इसे जीवन का अंग
 
कभी कभी सुखद पल भी आते थे जीवन में
नहीं होता था झगड़ा झाँसा
बतियाते लोग चौपालों में
गाते आल्हा
होली पर खेलते फाग, गाते होली
मिलते गले इकदूसरे से
 
दीवाली पर जलाते दीप
छोड़ते पटाखे यथासंभव
मनाते ख़ुशियाँ
नहीं होती जिनकी सामर्थ्य
शामिल होते दूसरों की ख़ुशियों में
 
उन्हीं क्षणों में याद आती गुप्त जी की कविता
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या जीवन है
इन्हीं पलों को मन में समेटे दूर चला आया गाँव से
और पीछे मुड़कर नहीं देखा कभी

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