अपना अपना तर्क
शैलेन्द्र चौहानबात उन दिनों की है जब मैं बी.एससी. प्रथम वर्ष में पढ़ता था। मेरा एक अभिन्न मित्र था अखिलन, बहुत संकोची और संवेदनशील बदनामी से वह बहुत डरता था। एक दिन पेड़ों से पत्ते झड़-झड़ कर कॉलेज के मैदान में इकट्ठे हो रहे थे। बड़ी मादक हवाएँ चल रहीं थीं, ऐसे में खाली पीरिएड में अखिलन और मैं गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठे थे। अखिलन बहुत व्यग्र और डिप्रेस्ड था, शायद आने वाली परीक्षाओं की वजह से वह कुछ कह नहीं पा रहा था। इतने में अगले पीरिएड की घंटी बजी, हमारा यह पीरिएड भी खाली था। अत: हम ज़मीन से कंकड़ चुन-चुन कर बेवजह ही निशाने साधते रहे। बी.ए. प्रथम वर्ष की कक्षाएँ समाप्त हो गई थीं। आर्ट्स के लड़के-लड़कियाँ क्लास रूम से बाहर आ रहे थे। बी.ए. प्रथम वर्ष में एक लड़की थी श्वेता, अखिलन को वह बहुत पसंद थी। मैं देख रहा था अखिलन की निगाहें उसी के क्लासरूम पर टँगी थीं। पहले लड़के निकले फिर लड़कियाँ, श्वेता सबसे पीछे थी। अखिलन ने एक बार चोर निगाहों से देखा फिर निगाहें झुका लीं। श्वेता जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई अखिलन वैसे-वैसे कछुए की तरह अपने में सिमटता गया। मैंने उसकी तरफ़ देख कर कहा, “देख वह तेरी श्वेता जा रही है।” उसके चेहरे पर आनंद की रेखा खिंची और लुप्त हो गई। श्वेता हम लोगों को बिना देखे आगे निकल गई। वह उसके पैरों की लय का पीछा करता रहा, थोड़ी दूर जाकर श्वेता एकाएक धीरे से मुड़ी, एक नज़र हमारी तरफ़ देखकर अन्य लड़कियों के साथ आगे बढ़ गई। “देख उसने भी तेरी तरफ़ देखा,” मज़ा लेने के लिए मैंने यह बात कही थी, मैं जानता था उसे यह बात अच्छी लगेगी।
कोई महीने भर बाद हम लोगों की परीक्षाएँ थीं। पंद्रह दिनों बाद प्रिपरेशन लीव होने वाली थी, इधर वह श्वेता को लेकर कुछ ज़्यादा ही सीरियस हो गया था। मुझे लगा यह तो गड़बड़ है अभी तक मैं उसका मन रखने के लिए और अपने मज़े के लिए उसे शह दे रहा था, अब मुझे लगने लगा कि उसे रोकना चाहिए। प्रिपरेशन लीव अगले दिन से शुरू होने वाली थीं और अखिलन यह सोच-सोच कर परेशान हो रहा था कि इतने दिनों तक वह श्वेता को देख नहीं पाएगा । मुझे भी उसने अपनी यह परेशानी बताई मैंने सोचा, यही सही वक़्त है, जब इसे एक डोज़ दी जा सकती है. “तुम एकदम पागल हो, परीक्षाएँ सिर पर हैं और तुम पर आशिक़ी का भूत सवार है, अरे यह तुम्हारा वन वे ट्रैफ़िक है! श्वेता तुम्हारे बारे में जानती ही क्या है?
अखिलन हतप्रभ था, वह क्रोध, अपमान और शर्म से ढका जा रहा था सर नीचे किए कुछ देर चुपचाप बैठा रहा, फिर उठ कर चल दिया। मैंने पुकारा भी, लेकिन उसने पलट कर देखा तक नहीं मुझसे इस बात की उसे कतई उम्मीद नहीं थी, मेरे इस तरह पलटा खाने से वह चकित था।
पंद्रह दिनों की प्रिपरेशन लीव में हम सिर्फ़ दो बार मिले, वह भी तब, जब मैं उसके घर गया। पहले तो वह मुझसे मिले बिना एक दिन भी नहीं रह सकता था, पूरे दिन की छोटी-बड़ी सारी बातें जब तक वह मुझसे नहीं कह देता उसे चैन नहीं पड़ता। और अब जब मैं उसके घर गया तो बड़े अनमने भाव से आकर सामने बैठ गया, चुपचाप, खोया-खोया, कोई बात नहीं की, मैंने कुछ कहना चाहा तो उसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। थोड़ी देर बैठ कर मैं चला आया।
जैसे-जैसे परीक्षाएँ पास आती गईं, उसने अपने आप को सँभाला। परीक्षाओं में हमारी रोज़ मुलाक़ात होती। मुझे लगा अब वह सामान्य हो गया है। परीक्षाएँ समाप्त हो गईं तो वह अपने गाँव चला गया। मैं लायब्रेरी में सुबह शाम समय काटने लगा।
छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं, रिज़ल्ट भी आने वाला था। मैं रिज़ल्ट और अखिलन दोनों का इंतज़ार कर रहा था। अखिलन के आने से पहले ही रिज़ल्ट डिक्लेयर हो गया। हम दोनों उत्तीर्ण हो गए थे मैंने उसे एक कार्ड भेजा, साथ ही टेलिग्राम भी कर दिया। यह सोचकर कि कार्ड न भी मिले, टेलिग्राम तो मिल ही जाएगा एक हफ़्ते बाद वह वापस लौटा।
फिर कॉलेज शुरू हुए, फिर गुलमोहर के पेड़ के नीचे हम बैठने लगे। कुछ दिनों बाद वह अचानक पूछ बैठा, “श्वेता भी सैकेंड इयर में चली गई होगी।” मैंने उसकी तरफ़ आश्चर्य से देखा, वह झेंप गया।
मैं मुस्कराया, “ज़ाहिर है इतनी बुद्धू तो नहीं होगी वह।” हमारी बातें चल ही रही थीं कि श्वेता कॉलेज की तरफ़ आती दिखाई दी। अखिलन ने श्वेता को देखा, श्वेता ने भी एक उचटती निगाह हमारी तरफ़ डाली और कॉलेज बिल्डिंग की तरफ़ बढ़ गई। दिन गुज़रते रहे। वह श्वेता के बारे में जानकारी लेने को बेताब रहता, चोरी-छिपे उसका पीछा करता। उसने उसके घर-परिवार के बारे में पता कर लिया, कहाँ जाती है, किस-किस से मिलती है, क्या करती है, कहाँ रहती है, लेकिन ये सारी सतही बातें थीं, इन से वह यह नहीं जान सकता था कि उसके दिल में क्या है? और उसके बारे में उसकी राय क्या है? यह पता करना बहुत ही मुश्किल था। इसी उधेड़बुन में वह उलझा रहता था । एक दिन वह बोला, “तुम मेरी मदद नहीं कर सकते?”
“मैं क्या कर सकता हूँ,” मैंने जानना चाहा।
थोड़ी देर ख़ामोश रहकर धीरे से बोला, “मैं अगर उसके नाम चिट्ठी लिखूँ तो?”
“देख लो, अगर तुम चाहते हो तो लिख डालो।”
वह डिप्रेस्ड था, डर भी रहा था, “अगर कुछ हो गया तो?”
“क्या होगा?”
“कुछ भी..., अगर वह चिट्ठी अपने बाप या भाई को दिखा दे, या प्रिंसिपल को ही दे दे।”
“हाँ रिस्क तो है।”
वह बहुत अधीर था, किसी भी तरीक़े से पता लगाना चाहता था श्वेता के मन की बात, “मेरी कुछ मदद करो, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है, दिन-रात बस श्वेता ही श्वेता सोचता रहता हूँ।”
उसकी बातों ने मुझे भी डिस्टर्ब कर दिया, बड़ी परेशानी है, यह तो बेमतलब बावला हो गया है। मैंने उसे टाला, “ठीक है कल कुछ सोचेंगे, अभी दिमाग़ काम नहीं कर रहा है।”
दूसरे दिन जब मैं कॉलेज के लिए घर से निकला तो रास्ते में मुझे उसके झमेले की याद हो आई, शायद आज भी वही सब होगा। मुझे झुँझलाहट होने लगी। मन में आया क्यों न दो थप्पड़ रसीद कर दिए जाएँ मजनू जी को, अजीब लफड़े में फँसा है, अब मुझे भी सहयोगी बनाना चाहता है। दूसरी तरफ़ मुझे उस पर रहम भी आ रहा था। मैं उसे कुछ भी समझा पाने में असमर्थ था क्योंकि वह कुछ समझना ही नहीं चाहता था। अत: मैंने तय किया कि उससे कहूँगा, तू चिट्ठी लिख के श्वेता को दे दे, जो भी होगा देखा जाएगा।
मैं आज थोड़ा लेट हो गया था। मेरे पहुँचने के पहले ही पीरिएड लग चुका था। मैं धीरे से क्लास रूम की तरफ़ बढ़ा, “मे आई कम इन सर?”
“यस!”
मैंने राहत की साँस ली। मैथेमेटिक्स का पीरिएड था, डांगे सर इंटिग्रल केलकुलस पढ़ा रहे थे। पीरिएड ख़त्म हुआ, फिज़िक्स और फिर केमिस्ट्री, लगातार तीन पीरिएड थे अत: मैं अखिलन से बच पा रहा था।
तीनों पीरिएड ख़त्म होने के बाद हम लोग साथ ही बाहर निकले। उसकी आँखों में प्रश्न था, क्या सोचा? मैंने थोड़ा रुक-रुक कर कहा, “देख मुझे तेरे इस अफ़ेयर में कोई इन्टरेस्ट नहीं है, तुझे जो जमे सो कर।”
मैं अंदर ही अंदर डर रहा था, वह बिफर पड़ेगा, नाराज़ हो जाएगा, पर वह चुप रहा। हम लोग चुपचाप चलते रहे। थोड़ी देर बाद वह बोला, “चलो कैंटीन में बैठकर कुछ बातें करते हैं।”
“ठीक है,” उसका जवाब था। हम कैंटीन की तरफ़ मुड़ गए, उसने दो कप चाय का ऑर्डर दिया। आज वह काफ़ी कांफ़िडेंट दिख रहा था।
“क्या तुम किसी के प्रति अट्रैक्ट नहीं होते?”
“ओ नहीं!”
“सच नहीं बोल रहे हो, छिपा रहे हो।”
वह यक़ीन नहीं कर रहा था। “नहीं छिपाने को कुछ है ही नहीं, यह शत-प्रतिशत सच है.” मैं अपनी बात पर अड़ा था।
“झूठ! मैं दावे से कह सकता हूँ, तुम झूठ बोल रहे हो।”
“वो कैसे?”
“तुम कविताएँ लिखते हो।”
“पर प्रेम कविताएँ नहीं लिखता।”
“मुझे पता है तुम बड़े क्रांतिकारी हो।”
मैंने समझाया, “देखो इस बहस से कोई फ़ायदा नहीं, तुम ऑफ़ेन्सिव हो रहे हो, चाय पियो और चलो।”
“चलना तो है ही, पर मेरी एक बात ध्यान से सुनो, तुम मुझसे भी ज़्यादा कायर और डरपोक हो, तुम कभी प्रेम नहीं कर सकते।”
वह आवेश में आ गया था। मैंने शांति से कहा, “बस यही कहना चाहते थे, निकल गई तुम्हारी भड़ास, अब चलो।”
चाय के पैसे देकर हम दोनों चल दिए, रास्ते भर चुप रहे। एक मोड़ पर आकर, बाय कह कर अपने-अपने घर की तरफ़ मुड़ गए। मैं रास्ते भर सोचता रहा, उसने जो भी कहा सच ही कहा, चलो माना मैं कायर और डरपोक हूँ। रही बात प्रेम करने की, तो प्रेम की असफलता सहन कर पाने का मुझमें साहस कहाँ? और अगर साहसी भी होता तो मैं क्या कर सकता था? क्या अखिलन का पत्र श्वेता को पहुँचाता? बड़ी अजीब बात है, जो काम वह ख़ुद नहीं कर सकता, मुझमें अपराध बोध पैदा कर मुझसे कराना चाहता है। अखिलन की इस बेचारगी पर मैं लगातार दुखी होता रहा।
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