कश्मकश

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

अब मेरी यादों में नहीं है 
बहुत कुछ सजाने-सँवारने लायक़
बचपन के दोस्त, गुल्ली-डंडा और 
अष्टा-चंगा खेलना, ख़ुश और नाराज़ होना
स्कूल में खेल-कूद और 
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना
सब कुछ समा गया है अंधे कुएँ के गर्त में
कोई प्रेतछाया विचरती है वहाँ 
किसी दिहाड़ी मज़दूर के जीवन सी
 
उड़ गए हैं पक्षियों के झुंड से सपनीले दिन
इंद्रधनुष के रंगों जैसे पल
आकांक्षाओं के मज़बूत डैने
धीरे-धीरे बिखर गए हैं आँखों के विवर में
काली लकीरें झाँक रही हैं पलकों के नीचे
ढीली पड़ गई हैं हवा में लहराती मुट्ठियाँ
नारे मंद हो गए हैं जैसे —
कोई दूर से आती तिलिस्मी आवाज़
किसी घाटी की तलहटी में 
विश्राम कर रहा है अदम्य जोश
झर गई हैं पंखुड़ियाँ गुलाबों की
 
नहीं है कार्यालय कोई 
नियत समय पर पहुँचने को
जूझने को किसी प्रकल्प की जटिलताओं से
फ़ाइलों के अंबार में आँखें फोड़ने को
यूनियन के सवालों से दो चार होने को
आंदोलनों, मोर्चों और हड़तालों से
संघर्ष और नई राहें तलाशने को
 
झिकझिक ख़त्म हो चुकी है रोज़-रोज़ की
परिवार बिखर चुका है मकई के दानों सा
ट्रांजिस्टर से निकले गीत 
लौट गए हैं तरंगें बन अंतरिक्ष में
टेलिविजन तीतर और बटेर की लड़ाई में मस्त है
भोंड़े मनोरंजन में ग़ाफ़िल हैं गुणी जन
प्रॉपर्टी और शेयर मार्केट के सरोवर में 
मुग्ध भाव से डुबकियाँ लगा रहे हैं
बेरोज़गारों को मिला है काम अद्भुत
नफ़रत, युद्ध और मौत को साधने का
सामाजिक दूरी, मन की दूरी मिली महामारी से
 
शून्य है मस्तिष्क, भूल गया अतीत
वे नसीहतें और उपदेश लगते हैं हास्यास्पद
जो हज़ारों लानतें भेजते हैं अक़्सर
किसी के मन की कमज़ोरी पर
 
रेत ही रेत उड़ रही है चारों ओर
मद्धम है आँखों की रोशनी
कमरे में अँधेरा है
तलाशती हैं आँखें कोई प्रकाश किरण
हताश हूँ लेकिन
अभी पूरी तरह नाउम्मीद नहीं हूँ

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