पत्रिका का सफ़रनामा

15-03-2025

पत्रिका का सफ़रनामा

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

‘धरती’ पत्रिका के बारे में

 

आपातकाल के बाद कुछ ठीक-ठाक लिखने का सिलसला प्रारंभ हुआ। जब तक कॉलेज में पढ़ रहा था तब तक कहीं कुछ भेजा नहीं। इंजीनियरिंग की शिक्षा पूरी करना प्राथमिक आवश्यकता थी। फ़ायनल की परीक्षाएँ होने के बाद पर्याप्त समय था। यह 1976-77 की बात है। तब तक छपने का तौर-तरीक़ा भी मालूम नहीं था। संकोच था। मित्रों ने प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे कुछ कविताएँ दो-एक अख़बारों में भेजी। एकाध जगह कुछ छपा। कहानियाँ भी छपीं। व्यवसायिक अख़बार, व्यवसायिक पत्रिकाएँ। छपना मुश्‍किल था ख़ासतौर से शुरूआती दौर में। कहीं कोई परिचय वग़ैरह भी नहीं था। कुछ सरकारी पत्रिकाएँ भी थीं। अख़बारों के बाद कुछ पत्रिकाओं में छपा। कादंबिनी और साक्षात्कार में कविताएँ, सारिका में आसपास बिखरी कहानियाँ। इनमें छपना बहुत आसान नहीं था। तब पता चला कि लघुपत्रिकाएँ भी छपती हैं जिनमें भी अच्‍छी रचनाएँ छपती हैं।

पहले ‘उत्तरार्ध’ से परिचय हुआ फिर ‘पहल’ से। तभी एक मित्र के विवाह में मथुरा जाना हुआ। वहाँ का. सव्यसाची जी से भेंट हुई। ‘उत्तरार्ध’ में कविताएँ भेजी। सव्यसाची जी ने जवाब नहीं दिया। तब सोचा कि क्यों न एक लघुपत्रिका स्वयं निकाली जाये जिसमें अपने जैसे रचनाकारों को छापा जाये। आर्थिक समस्या थी जो 1978 में स्थानीय पॉलिटेक्निक संस्थान में व्याख्याता बनने के बाद हल हो गई। 1979 में ‘धरती’ का पहला अंक निकला। 50-55 पेज का छोटा अंक था। बहुत सामग्री नहीं थी पर छपा ख़ूबसूरत था। तभी ‘उत्तरगाथा’ में मेरी एक कविता छपी।

तदुपरांत कवि-गीतकार जगदीश श्रीवास्तव, विदिशा और ग़ज़लकार अहद प्रकाश, रायसेन ने धरती का दूसरा अंक ग़ज़ल विशेषांक निकालने की सलाह दी। तब तक सारिका में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बहुत लोकप्रिय हो चुकी थीं। उनसे प्रेरित होकर बहुत लोग ग़ज़लें लिख रहे थे। जगदीश जी और अहद भाई ने ग़ज़लें जुटाईं। भाई जानकी प्रसाद शर्मा ने भी सहयोग किया। ग़ज़ल अंक अच्‍छा बन पड़ा। इस अंक का विमोचन सुप्रसिद्ध चित्रकार भाऊ समर्थ ने किया। हालाँकि ग़ज़ल हिंदी साहित्य की प्रमुख विधा नहीं थी पर पढ़ी ख़ूब जा रही थी।

इसके बाद नौकरी बदल ली और विदिशा छोड़ मैं नांदेड़, महाराष्ट्र चला गया। एक वर्ष बाद 1980 में वहाँ से समकालीन जन-कविता अंक निकाला। इसका वहाँ अहिंदी-भाषी क्षेत्र में भव्य विमोचन हुआ। यह अंक काफ़ी पसंद किया गया।

अगले वर्ष महाराष्ट्र छोड़कर मैं इलाहाबाद पहुँच गया। वहाँ बहुत लेखकों से परिचय हुआ। शिवकुटी लाल वर्मा, विद्याधर शुक्ल, मत्ष्येंद्र शुक्ल, सत्यप्रकाश मिश्र, सतीश जमाली, अमरकांत, मार्कंडेय, शेखर जोशी, अजित पुष्कल, शाश्वत रतन, प्रदीप सौरभ, अशोक त्रिपाठी आदि। विद्याधर जी की सलाह पर त्रिलोचन जी पर अंक निकालने की योजना बनी। सामग्री जुटाई और दिसंबर 1982 में अंक प्रकाशित हुआ। जनवरी 1973 में ही जयपुर में प्रलेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में इसे लोकार्पित किया। यह अंक बहुत सराहा गया।

इसके बाद आलोचना अंक आया। इसमें अशोक त्रिपाठी ने सहयोग किया।

1984 में मैं कानपुर आ गया। वहाँ से तीन सामान्य अंक निकले। कानपुर में ही शील जी पर अंक निकालने की योजना बनाई परन्तु दो वर्ष तक उन पर अपेक्षित सामग्री हासिल नहीं हो सकी। अंततः शील जी के साहित्य को ही प्रस्तुत करने की ठानी। पचास कविताएँ, कुछ कहानियाँ और लेख चुन लिए। तब तक मेरा स्थानांतरण कानपुर से मुरादाबाद हो चुका था। एक वर्ष बाद मुरादाबाद से कोटा पहुँच गया। 'शील' साहित्य अंक कोटा से प्रकाशित हुआ। साथी शिवराम और महेंद्र नेह के साथ ही कोटा और पूर्वी राजस्थान के अनेक लेखक मित्रों का सहयोग रहा। अंक प्रकाशित होने के बाद शील जी के सानिध्य में कोटा में इसका भव्य विमोचन संपन्न हुआ। ऋतुराज जी, हेतु भारद्वाज, डॉ. जीवन सिंह, महेंद्र नेह, शिवराम, शंभु गुप्त, विनोद पदरज और अनेक अन्य स्थानीय साहित्यकार उपस्थित रहे।

कोटा से जयपुर आ गया। बार-बार स्थानांतरण और कुछ पारिवारिक परेशानियों के चलते ‘धरती’ का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। जयपुर से दादरी (गाजियाबाद) और फरीदाबाद होकर जब नागपुर पहुँचा तो पुनः प्रकाशन आरंभ किया। नागपुर से दो-तीन अंक निकले। नागपुर के बाद मैं मप्र आ गया। इंदौर से शलभ श्रीराम सिंह पर अंक निकाला।

इंदौर से बड़ौदा और बड़ौदा से पुनः राजस्थान आया। तो फिर साम्राज्यवादी संस्कृति बनाम जनपदीय संस्कृति अंक प्रकाशित किया।

राजस्थान से जम्मू पहुँच कर कश्मीर अंक निकाला और जम्मू से दिल्‍ली आकर मीडिया विशेषांक प्रकाशित किया।

सेवा-निवृत्ति के बाद पुनः प्रकाशन बाधित हुआ। कुछ अस्थिरता के बाद जयपुर रहने का ही निश्चय किया। दो-एक वर्ष का समय यूँ ही निकला। फिर कोरोना का महा-प्रकोप घटित हुआ। दो वर्ष और बीते। एक बार फिर प्रकाशन संभला। गत दो वर्षों में चार अंक निकले हैं। वैज्ञानिक चेतना और कथेतर गद्य अंक काफ़ी सराहे गये। हाल ही में आलोचना अंक आया है। आगे सामान्य अंक की योजना है। कहीं से कोई आर्थिक सहयोग नहीं। प्रकाशन कार्य में भी कोई साथ नहीं और अब प्रिंटेड बुक, पोस्ट की सुविधा भी डाक विभाग ने समाप्त कर दी है। ज़माना डिजिटल हो गया है। सोशल मीडिया का वर्चस्व है। राह कठिन है। देखते हैं आगे कैसे और कब तक मैनेज हो सकेगा।

शैलेन्द्र चौहान
संपादक-धरती
34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो. 7838897877
*प्रेरणा अंशु, लघुपत्रिका विशेषांक, फरवरी 2025

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
स्मृति लेख
यात्रा-संस्मरण
सिनेमा और साहित्य
कविता
सामाजिक आलेख
पुस्तक चर्चा
पुस्तक समीक्षा
ऐतिहासिक
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
कहानी
काम की बात
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें