यायावर मैं–006: सृजन संवाद

01-08-2022

यायावर मैं–006: सृजन संवाद

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

उन दिनों रचनाएँ क़लम से काग़ज़ पर लिखी जाती थीं और कुछ सुधार के बाद फ़ेयर करके डाक से पत्र-पत्रिकाओं को भेजी जाती थीं। यह सन्‌ 1981-82 की बात है जब जयपुर से निकलने वाली एक लघु पत्रिका ‘मधुमाधवी’ के कहानी आलोचना अंक हेतु मुझसे आलेख माँगा गया। इस पत्रिका की संपादक सुश्री नलिनी उपाध्याय थीं। मेरा उनसे परिचय नहीं था। संभवतः ‘धरती’ के मधुमाधवी विनिमय के कारण हमारा परिचय रहा होगा। उन दिनों मैं नांदेड (महाराष्ट्र) में इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी करता था। तब कविताएँ और कहानियाँ लिखता था। आलोचना में कोई गति नहीं थी। एक दो समीक्षाएँ भर लिखी थीं। हाँ लघुपत्रिकाओं पर नागपुर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘नया खून’ में टिप्पणियाँ किया करता था। उन दिनों विनायक कराडे तब कार्यकारी संपादक थे। कभी मुक्तिबोध इसका संपादन देखते थे। कहानियों पर आलेख लिखना मुश्‍किल लग रहा था पर सोचा कोशिश करता हूँ शायद कुछ बन जाये। ‘धरती’ के समकालीन कविता अंक के लोकार्पण के सिलसिले में नांदेड के मराठी साहित्यकारों से परिचय हुआ था जिनमें स्थानीय महाविद्यालय के प्राध्यापक भी थे। धरती के इस अंक का आश्चर्यजनक रूप से भव्य लोकार्पण हुआ था। यहाँ हिंदी विभाग भी था। हिंदी के विभागाध्यक्ष जोशी जी एक भले व्यक्ति थे। नाम मैं भूल रहा हूँ। वहीं एक प्राध्यापक भा. ग. महामुनि थे। मराठी के एक बड़े आलोचक नरहरि कुरुंदकर थे। वे नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके थे। उनका प्रभामंडल घना था। उनसे बात होनी मुश्‍किल थी। मराठी साहित्य की मेरी जानकारी नगण्य ही थी। एक बहुत सहृदय और विद्वान इतिहासकार स रा गाडगील थे जिनकी मध्यकाल के संत साहित्य में वैचारिक उत्प्रेरण पर कई पुस्तकें थीं। उन्हें हिंदी नहीं आती थी लेकिन मुझसे बात करने के लिए उन्होंने हिंदी में बात करने का पूरा प्रयास किया। तो भा ग महामुनि ने आलेख लिखने में मेरा मनोबल बढ़ाया। और मैंने लेख लिख लिया। मैं बहुत आश्वस्त नहीं था पर उसे डाक से भेज दिया गया। एकाध महीने बाद स्वीकृति भी प्राप्त हो गई। समय बीत चला। मैंने वह नौकरी छोड़ने का मन बना लिया और एक दूसरे संस्थान में मुझे नौकरी मिली। पोस्टिंग इलाहबाद थी। मैं ख़ुश था। मैंने इस्तीफ़ा दे दिया और एक माह बाद मुक्त होकर इलाहबाद पहुँच गया। मधुमाधवी की संपादक को मैंने पत्र द्वारा सूचना दे दी कि नांदेड छोड़ दिया है। पत्रिका वहाँ न भिजवाएँ। मैं मार्च 1982 में इलाहबाद पहुँचा। लघुपत्रिकाओं के प्रकाशन में अनेकानेक कारणों से बिलंब होता है। अतः यह अंक 1983 में ही मिल सका। इस वक़्त तक धरती का त्रिलोचन अंक प्रकाशित हो चुका था और जयपुर में प्रलेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में उसका विमोचन हुआ था। बहरहाल मधुमाधवी का कहानी आलोचना अंक मिला। उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्‍यकार मौजूद थे। उन सबके बीच अपने लिखे हुए से मैं बहुत आश्वस्त नहीं हो पाया। और अभ्यास की ज़रूरत लगी। 

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