संवेदना ही कविता का मूल तत्त्व है

01-11-2024

संवेदना ही कविता का मूल तत्त्व है

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

‘प्रसंग’ कविता महाविशेषांक 

'प्रसंग’ का कविता महाविशेषांक बहुत दिनों से आया है लेकिन इसे ठीक से पलट भी नहीं सका इसलिए कुछ कहने से रुका रहा। दो एक दिनों में कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। गद्य खंड पहले पलटा उसमें भी आलेख सबसे पहले देखे। चूँकि अंक बड़ा है इसलिए समय लगा। इसकी तैयारी में आदरणीय शंभु बादल जी ने डेढ़-दो वर्ष का यथेष्ट समय और श्रम लगाया जिसका प्रतिफल है यह विशद अंक। शंभु बादल जी से संभवतः मेरी कभी प्रत्यक्ष भेंट नहीं हुई लेकिन ‘धरती’ और ‘प्रसंग’ के परस्पर विनिमय के कारण सन्‌ 1981 से लेखकीय परिचय रहा है। प्रसंग का दूसरा अंक भी कवितांक था। उन्हाेंने तब भी मेरी कविता बुलाई थी और इस बार भी कोई डेढ़ वर्ष पहले कविताएँ भेजने के लिए उनका फोन आया था। बीच में भी प्रसंग में मैं शामिल रहा हूँ। उनकी आत्मीयता सदैव रही है। ख़ैर, बात इस अंक की कि क्यों यह विशेषांक है और उसमें क्या विशेष है। उन्होंने अपने संपादकीय में यह स्पष्ट किया है कि इक्कीसवीं सदी में विशेषकर तीसरे दशक में उपभोक्तावाद, आर्थिक असमानता, लूट, शोषण, भ्रष्ट आचरण से सामान्य मनुष्यों के जीवन में कठिनाइयाँ और जटिलताएँ बढ़ी हैं। महाविपत्ति कोरोना ने इसमें जले में नमक का काम किया। पूँजीवादी दुष्टता, संवेदनहीनता यहाँ चरम पर दिखी। सूचना प्रौद्योगिकी का कमाल और धमाल दोनों दिख रहा है। ऐसी स्थितियों में कविता शायद मरहम का काम कर सके। उनके विचार से कविता संवेदना का रूप है। संवेदनशीलता से कविता जन्मती है। अतः कविता का मूल भाव संवेदना ही है। अब बात रचनाओं की। संक्षेप में ही कहूँगा। सभी रचनाओं पर बात करना बहुत मुश्‍किल है लेकिन प्रथमदृष्टया एक पाठकीय टिप्पणी आवश्यक लगी। 

रविभूषण जी का आलेख ‘वर्तमान समय के साथ कविता पर कुछ बातें’ पढ़ गया। यह बात अच्‍छी है कि वे वर्तमान समय का विश्लेषण सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक संदर्भो में करते हैं। अच्‍छा है उनका ज़ोर वर्तमान समय पर रहता है; अतीत पर नहीं। लेकिन इतिहास से कोई नज़र कैसे चुरा सकता है। साहित्य और कविता का भी जो निकट इतिहास है वह तो आज के संदर्भों में देखा ही जायेगा और उसके संदर्भों में आज की रचनाशीलता की तुलना की जायेगी। प्रासंगिकता की परख भी की जायेगी। वह लिखते हैं कि-स्वाधीन भारत में और वह भी नेहरू के कार्यकाल में मुक्तिबोध ने क्यों लिखा—मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम। ‘देश’ मात्र एक शब्द नहीं है। वह भूगोल भी नहीं है। देश का अर्थ देश की जनता से है। आगे वह लिखते हैं—देश और देश की चिंता, जनता की चिंता अधिक कवियों में नहीं है। वह नागार्जुन की कविता ‘स्वदेशी शासक’ का उदाहरण पेश करते हैं और कहते हैं कि पचास साल बाद मंगलेश ने ‘हमारे शासक’ कविता लिखी। रविभूषण जी की चिंता यह है कि आज के कवि इस बात से उदासीन हैं। कुछ हद तक यह ठीक है। अगर मैं पूछूँ कि निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, शील, शलभ, गोरख पांडेय, रघुवीर सहाय, दुष्यंत कुमार आदि के समय में भी कितने कवियों की मुख्य चिंता देश और देश की जनता रही और बाद में आठवें-नौवें दशक में कितनों की नहीं रही। जब मंगलेश का ज़िक्र किया तो रविभूषण जी यह अनदेखा कैसे कर सकते हैं कि उनके अधिकांश समकालीनों की मुख्य चिंता वही थी। वह भी एक दौर था। जुनून और उत्साह था। जब हम बहुत सिलेक्टिव हो जाते हैं तब हमारी दृष्टि सुरंगवत एवं संकीर्ण होने लगती है। मैं आदरणीय रविभूषण जी के साहित्यिक ज्ञान को चुनौती देने का दुस्साहस नहीं कर सकता। वे विद्वान हैं। उन्हाेंने विधिवत और पद्धतिपूर्ण तरीक़े से साहित्य की शिक्षा प्राप्त की है। अध्यापन किया है और अनेक लोगों को ज्ञानसंपन्न किया है। मैं तो बस अपनी अल्पबुद्धि से, अपने सोच और संवेदना से ही कुछ कह सकता हूँ। यह आलेख बड़ा है। आज की कविता की प्रवृत्तियों और विशेषताओं को चुनिंदा नामों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया है। उसका आकलन किया है। अच्‍छा है लंबी सूची नहीं दी है वरना इधर सूची और उद्धरण से ही आलोचना संपन्न हो जाती है। निश्चित ही यह महत्त्वपूर्ण आलेख है। इस पर बात होनी चाहिए। इस मामले में अवधेश प्रधान भी सिलेक्टिव हैं और विजय गुप्त भी। शेष पूरक टिप्पणियाँ हैं। 

कविता खंड क्रांतिकारी कवि वरवर राव की कविताओं के हिंदी अनुवाद से शुरू होता है। तदुपरांत वरिष्ठ कवि श्रीराम तिवारी से की हिंदी की कविताओं का आग़ाज़ होता है और केवल गोस्वामी, ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, दिविक रमेश, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, अरुण कमल, अष्टभुजा शुक्ल, मदन कश्यप, रमाकांत शर्मा, जीवन सिंह आदि वरिष्ठ कवियों की कविताएँ शामिल हैं। इनमें नरेंद्र जैन और उदय प्रकाश की अनुपस्थिति कुछ रिक्ति का अहसास कराती है। मेरे समकालीन अनेक कवि इसमें मौजूद हैं। अधिसंख्य कविताओं में जन हैं, जनता है और जनपक्षधरता भी है। नाम लेना उतना ज़रूरी नहीं। हमारे बाद की पीढ़ी भी सजग है। वसंत सकरगाए, बोधिसत्व, शैलेय, रजत कृष्ण से लेकर संतोष चतुर्वेदी, महेश पुनेठा, कुमार मुकुल आदि तक जिनकी कविताएँ अच्छी हैं। उसके बाद की पीढ़ी में भानुप्रकाश रघुवंशी, पद्मजा शर्मा, लक्ष्मीकांत मुकुल, सुशील स्वतंत्र, अनुज लुगुन, कविता कॄष्णपल्लवी की कविताएँ प्रभावी हैं। झारखंड और लगे हुए बिहार के कई युवा कवियों की उपस्थिति सराहनीय है। कहा जा सकता है कि सभी पीढ़ियों के कवियों को सदाशयता और सम्मान तथा लोकतांत्रिक सोच के तहत समाहित किया गया है। कोई कट्टरता नहीं, पूर्वाग्रह नहीं। यह अच्छा है। अंक कैसा बन पड़ा है यह तो सबकी अपनी राय होगी। सबको अपनी राय रखने का हक़ है और रखनी भी चाहिए लेकिन यह काम महत्त्वपूर्ण है यह तय है। सभी रचनाकारों एवं पाठकों को बहुत बहुत शुभकामनाएँ। 

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