बर्फ़

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

बर्फ़ ही बर्फ़ है हर तरफ़
पार्कों में, मैदान में, घरों पर 
सड़कों पर दौड़ती है बर्फ़ साफ़ करने वाली गाड़ी
किनारे खड़े हो जाते हैं पहाड़
 
पेड़ों की डालियों पर उग आई है बर्फ़
अदृश्य चिड़ियों के घोंसलों सी
खेतों में गेहूँ, चने और सरसों के पौधों सी
मटर, गोभी, टमाटर सी जमी है
 
एक काली गिलहरी फुदक रही है श्वेत धवल बर्फ़ में
कुत्तों को घुमा रहे हैं उनके मालिक
लोग कर रहे हैं अपना काम
चल रहा है हर व्यवसाय
माल और सुपर स्टोर्स में उपलब्ध है वह सब
जो नहीं उत्पन्न होता यहाँ
 
घर के अंदर नियंत्रित है तापमान
मैं दबा जा रहा हूँ बर्फ़ में
यह कैनेडा और अमरीका की नहीं
मेरे अपने देश की बर्फ़ है
जमी है सत्ताधारियों के मस्तिष्क में छल-प्रपंच, कुटिलता सी
मध्यवर्गियों के मन में कुंठा और अहमन्यता सी
ग़रीबों के अस्तित्व पर यह जमी है सदियों से
 
यह आभासी बर्फ़ मेरी अपनी है
मैं छूटना चाहता हूँ इसकी जकड़ से
बाहर आना चाहता हूँ

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