उलाहना

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

अचानक तुम उछल पड़े थे
पानी भरे खेत में धान की पौध रोपते वक़्त
तुम्हें सहज ही उछलते देखा था मैंने
तुम्हारे कुछ मंसूबे थे, आदतें थीं
  
जब पहली बार मैं वॉलीबाल और नेट लेकर गाँव आया था
तब नेट बाँधने के लिए लकड़ी की सीधी बल्लियाँ
जिस उत्साह से तुमने ज़मीन में गाड़ी थीं
वह देखते ही बनता था
और फिर उछल उछल कर बॉल मारना . . . 
चिहुँकना . . . 
 
अब तुम्हारी जाँघ से रिसता ख़ून
मैंने पूछा ये क्या हुआ, क्या चुभा, किसी कीड़े ने काट लिया
तुम बेफ़िक्र थे हाथ से पोंछ लिया था ख़ून
खेती किसानी में ये सब होता है कोई बड़ी बात नहीं
 
तुम अक़्सर मुझसे कहते थे शहर में रहने वालों को गाँव में अच्‍छा नहीं लगता होगा
शहर में रहकर मेहनत तो करनी नहीं होती
आराम से रहना होता है
खाने में बहुत तरह की सब्जी-तरकारी
कुर्सी पर बैठकर खाना
गाड़ियों में घूमना
मोटे गद्दों पर सोना
सर्दी गर्मी बचकर रहना
तरह तरह के स्वाँग करना
 
मुझे मालूम हैं तुम्हारे आभाव तुम्हारे संघर्ष
और
तुम्हारी जिज्ञासा/ उलाहना बस इतना भर था

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
यात्रा-संस्मरण
स्मृति लेख
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
कहानी
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें